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इरिएस भासाए उच्चारसमिसु य ।
आयनिक्ad संजओ सुसमाहिओ ।"
चाण्डाल कुल में उत्पन्न होने वाला यह मुनि ज्ञान आदि उत्तम गुणों का धारक था । और ईर्या, एषणा, भाषा, उच्चार, आदान-निक्षेप - --- इन समितियों में सावधान और समाधिस्थ था ।
हरिकेशबल मुनि तपस्वी भी थे । तपस्या के द्वारा उन्होंने अपना शरीर कृश कर लिया । मन पवित्र विचारों से युक्त था । जिससे प्रभावित होकर एक यक्ष मुनि की सेवा में रहने लगा ।
मुनि का जितना आंतरिक सौन्दर्य सुन्दर था। उतना बाह्य नहीं । व्यक्ति के प्रथम आकर्षण का मुख्य बिन्दु बनता है उसका बाह्य व्यक्तित्व । हरिकेशबल मुनि का बाह्य व्यक्तित्व आकर्षक नहीं था । उनका रूप वीभत्स, काला, विकराल और बड़ी नाक वाला । गले में चिथडा डाला हुआ । और पिशाच की तरह दिखाई दे रहा था । जिसे देखकर एक बार तो व्यक्ति भयभीत हो जाता । परन्तु आंतरिक सौन्दर्य और आभामण्डल से व्यक्ति प्रभावित हुए बिना नहीं रहता, जिसके कारण ही यक्षायतन में बैठा हुआ यक्ष भी उनकी सेवा में रहता और वह इतना स्वामी भक्त हो गया था कि वह एक क्षण भी मुनि की पीड़ा नहीं देख सकता । इस प्रकार हरिकेशबल मुनि का चरित्र एक उत्तम श्रमण का चरित्र था ।
(ख) यक्ष
इस आख्यान का दूसरा पात्र है -यक्ष । यक्ष तिन्दुकवृक्ष का वासी था । हरिकेशबल मुनि के प्रति उसकी अटूट श्रद्धा थी । वह मुनि के तप से प्रभावित होकर मुनि की सेवा करने लगा । यक्ष के जीवन में करुणा का स्रोत था । जब मुनि को यज्ञशाला में भिक्षा के लिए मनाही कर देते हैं तब यक्ष यह देख नहीं पाता । वह तुरन्त मुनि के शरीर में प्रवेश कर इस रूप में याचना करने लगता हैसमणो अहं संजओ बंभयारी, विरओ घणपयणपरिग्गहाओ । परप्पवित्तस्स उ भिक्ख काले,
अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि ||
इस प्रकार यह संवाद काफी देर तक चलता रहता है। इसके अतिरिक्त भद्रा राजकुमारी के द्वारा थूके जाने पर भी उसका बदला उसके शरीर में वह प्रवेश करके लेता है । यक्ष देवता मुनि के प्रति पूर्ण समर्पित था । इसके अतिरिक्त यक्ष का एक रूप हमें भक्त के रूप में दिखाई देता है । जिस प्रकार हनुमान राम के परमभक्त थे । वैसे ही यक्ष मुनि का परम भक्त था ।
(ग) भद्रा -
भद्रा बाराणसी राजा की पुत्री थी। यह पूजा-पाठ में विश्वास करती थी । इसलिए पूजा-पाठ के लिए मक्ष मन्दिर में जाती । बाह्य व्यक्तित्व सुन्दर था । प्रारम्भ में उसे साधुओं के प्रति घृणा थी । परन्तु जब ऋषि को कन्यादान के रूप में उसे दे दिया
खण्ड २१, अंक २
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