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'संबोधि' में अलंकार
समणी स्थितप्रज्ञा
'संबोधि' में अलंकार रसभाव आदि के सहायक रूप में उपस्थित हए हैं। विवेच्य वस्तु के उत्कर्षाधायक है तथा कविता-कामिनी के सौंदर्य की अभिवृद्धि करने वाले हैं । संबोधि में प्रयुक्त विशिष्ट अलंकारों का विवेचन ही यहां अभिधेय है । १. लाटानुप्रास
जिसमें समान शब्दार्थ होने पर केवल तात्पर्य मात्र का भेद होता है। उसे लाटानुप्रास कहते हैं। जैसे--
सर्वथा सर्वदा सर्वा, हिंसा वा हि संयतः।
प्राणघातो न वा कार्यः, प्रमादाचरणं तथा ॥ संयमी पुरुषों को सब काल में सब प्रकार से, सब हिंसा का वर्जन करना चाहिए, न प्राणघात करना चाहिए और न प्रमाद का आचरण । इसमें सर्वथा, सर्वदा, और सर्व में तात्पर्य भेद होने पर भी अर्थ की समानता होने से लाटानुप्रास अलंकार है। २. यमक अलंकार
अर्थ होने पर, भिन्न-भिन्न अर्थ वाले वर्ण समुदाय की पूर्वक्रम से ही आवृत्ति यमक अलंकार कहलाता है। यथा---
ऐं ॐ स्वर्भूर्भुवस्त्रय्या-स्त्राता तीर्थंकरो महान् ।
वर्धमानो वर्धमानो, ज्ञान-दर्शन-सम्पदा ॥ त्रिलोकी के त्राता महान् तीर्थंकर वर्धमान ज्ञान और दर्शन की सम्पदा से वर्धमान हो रहे थे।
वर्धमान (महावीर) वर्धमान (वृद्धि) भिन्न-भिन्न अर्थ वाले सार्थक वर्ण समुदाय होने से यमक अलंकार है । ३. उपमा अलंकार
उपमान तथा उपमेय का भेद होने पर भी दोनों के गुण, क्रिया आदि धर्म की समानता का वर्णन उपमा अलंकार है।' संबोधि में उपमा अलंकार का प्रयोग द्रष्टव्य है
आवारकघनत्वस्य, तारतम्यानुसारतः । प्रकाशी चाप्रकाशी च, सवितेव भवत्यसो ॥"
खण्ड २१, अंक २
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