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विविध रूपों में प्रस्फुटित हो गया। मुक्तकशतक उनकी प्रारंभिक रचना है। उसमें उनके उत्तरोत्तर विकसित होते मनोभाव दर्शनीय हैं
प्रभो ! सुकृत उदित हुआ/फलतः मैं मनुज हुआ
यह है समकित प्रभात/न रही अब मोह रात
x पर-परिणति को लखकर जड़मति बिलख-हरख कर
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योग-मार्ग बहुत सरल/भोग मार्ग निश्चय गरल
x पाप सज पुण्य करोगे तो क्या नहीं मरोगे भले हि स्वर्ग मिलेगा/भव-दुःख नहीं मिटेगा
इच्छा नहिं कि कुछ लिखू/जड़ार्थ मुनि हो बिकू
उस ओर मीन तोड़ा/विवाद से मन जोड़ा किन्तु उसके बाद परिपक्वता के दर्शन होने लगते हैं
ऐसा कोई जीवन नहीं है कि जिसमें एक भी गुण न मिलता हो नगर, उपनगर में पुर, गोपुर में, प्रासाद हो या कुटिया जिसके पास कम से कम एक तो प्रवेश द्वार
होता अवश्य-(चेतना के गहराव में से) मर्मदा का नरम कंकर, डूबो मत, लगाओ डुबकी और तोता क्यों रोताकाव्यों में करुणा, परोपकार और दान की महिमा है। शब्दों के साथ कवि मन चाहा खिलवाड़ करता है किन्तु उसका उद्देश्य कभी तिरोहित नहीं होता और शब्द बिम्ब बनते जाते हैं । वे कहते हैं--'जहां न जाय रवि, वहां जाय स्वानुभवी।
आचार्य विद्यासागर के साहित्य के लिए शब्द-शब्द विद्या का सागर शीर्षक सटीक बन पड़ा है । उदाहरण स्वरूप परम नमन में रम--इन नौ अक्षरों को रम, मन, रम से लक्ष्य करें और इन तीन शब्दों की व्याख्या करें तो यह एक पुराण का उपाख्यान बन जावेगा
अरे ! मन तू रमना चाहता है/श्रमण में रम/चरम चमन में रम/सदासदा के लिए/परम नमन में रम ।
-परमेश्वर सोलंकी
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