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वाचक शब्द भी भिन्न हैं। इसी प्रकार शब्द भेद से पदार्थ भेद भी मानना चाहिए। अन्यथा भिन्न पर्याय-प्रयोजन का क्या अर्थ ?
एक पर्यायाभिधेयमपि वस्तु च मन्यते ।
कार्य स्वकीयं कुर्वाणमभेवंभूतनयो ध्र वम् ॥१७॥ एवंभूत नय के अनुसार एक पर्याय का कथन करने वाला शब्दार्थ ही अपना कार्य करने वाली वस्तु सत् है । अर्थात् शब्दार्थ अनुसरित कार्य सत् है।
__ यदि कार्यमकुर्वाणोऽपीष्यते तत्तया स चेत् ।
तदा पटेऽपि न घटव्यपदेश किमिष्यते ॥१८॥ यदि पदार्थ कार्य नहीं करता हो तथापि उसके लिये तत्तद् कार्य दर्शक शब्द प्रयोग होता हो तो “घट' शब्द 'पट' पदार्थ के हेतु क्यों नहीं प्रयुक्त किया जाय ? क्योंकि 'घट' शब्द द्वारा निर्देशित कार्य जैसे अनावश्यक 'घट' में नहीं है वैसे ही 'घट' शब्द द्वारा निर्देशित कार्य 'पट' पदार्थ में भी नहीं होता। दोनों स्थल पर शब्दार्थ की अकार्यता समान होने से 'घट' शब्द द्वारा 'पट' शब्द का भी बोध होना चाहिए । किन्तु व्यवहार में घट शब्द के द्वारा पट शब्द का बोध नहीं होता। अतः एवंभूत नय के अनुसार एक पर्याय को निर्देशित शन्द अनुसार क्रिया सम्पन्न हो तो ही वस्तु सत् है, अन्यथा असत् है ।
यथोत्तरं विशुद्धाः स्युर्नवा सप्ताप्यमी तथा ।
एकैकः स्याच्छतं भेदास्ततः सप्तशताप्यमी ॥१९॥ उपयुक्त सात नय क्रमशः विशुद्ध होते जाते हैं । प्रत्येक नय के सौ-सौ प्रभेद हैं। अतः सात नय के सात सौ भेद होते हैं।
अथवंभूतसमभिरुढयोः शब्द एव चेत् ।
अन्तर्भावस्तदा पञ्च नय-पञ्चशतीभिदः ॥२०॥ एवंभूत नय और समभिरूढ नय का शब्द नय में अंतर्भाव करने में माता है तब नय की संख्या सात की अपेक्षा पांच होती है और प्रत्येक के सौ-सौ प्रभेद से नयों के अवांतर भेद से सात सौ की अपेक्षा पांच सो प्रभेद होंगे।
द्रव्यास्तिक पर्यायास्तिकयोरन्तर्भवन्त्यमी ।
आदावादिचतुष्टयमन्ये चान्त्यास्त्रयस्ततः ॥२१॥ संक्षेप में, सात नयों का द्रव्यास्तिकनय और पर्यायास्तिकनय नामक प्रमुख दो भभेदों में सम्मिलित होने से मूल दो नय है। प्रारम्भिक चार नय (नगमनय,
संग्रहनय, व्यवहारनय और ऋजुसूत्रनय) का सम्मिलन द्रव्यास्तिक नय में होता है। , अन्य तीन नय (शब्दनय, समभिरूढ़नय और एवंभूतनय) पर्यायास्तिक नय में समाविष्ट हैं।
सर्वे नया अपि विरोधभृतो मिथस्ते । संभूय साधुसमयं भगवान भजन्ते । भूया इव प्रतिभटा भुवि सार्वभौम
पादाम्बुजं प्रधनयुक्तिपराजिता द्राक् ॥२२॥ उपयुक्त सात नय वैसे तो परस्पर विरोधी दिखाई देते हैं, किन्तु हे भगवान् ! बण्ड २१, अंक २
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