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(अन्य दृष्टान्त में) मात्र अंगुलियों का पृथक् अस्तित्व नहीं होता, अंगुलियां हाथ में ही समाविष्ट हैं।
विशेषात्मकमेवार्थी व्यवहारश्च मन्यते ।
विशेषभिन्न सामान्यमसखर विषाणवत ।।८।। पदार्थ मात्र विशेषात्मक ही है ऐसा व्यवहार नय मानता है। विशेष से पृथक् सामान्य का कोई अस्तित्व नहीं है, जैसे खरविषाण-गदहे को सिंग---असत्
टिप्पण
___ व्यवहार नय के मतानुसार पदार्थ मात्र विशेषात्मक होता है। यह नय पूर्वोक्त संग्रह नय से भिन्न दृष्टि रखता है। संग्रह नय सामान्य को प्राधान्य देता है जबकि व्यवहार नय विशेष को प्राधान्य देता है ।
वनस्पति गृहाणेति प्रोक्ते गृह्णाति कोऽपि किम् ।
विना विशेषान्नाम्रादीस्तन्निरर्थकमेव तत् ।।९।। (व्यवहार नय अपनी मान्यता की प्राप्ति में उदाहरण देते हुए बताता है कि किसी मनुष्य को) “वनस्पति ग्रहण कर" ऐसा कहा जाय तब संबोधित कोई भी मनुष्य क्या ग्रहण करेगा ? (अर्थात कुछ भी ग्रहण नहीं कर सकता) अतः विशेष रहित मात्र सामान्य निरर्थक है। आम्र आदि विशेष की सहायता बिना सामान्य का कोई प्रयोजन नहीं रहता।
व्रणपिण्डीपादलेपादिके लोकप्रयोजने ।
उपयोगो विशेष: स्यात्सामान्य न हि कहिचित् ॥१०॥ विशेष स्पष्टता करते हुए विशेषवादी बताता है कि लोक व्यवहार में भी जब घाव पड़ा हो, पिण्ड, पादलेप करना हो, तब भी विशेष से ही उपयोग होता है । सामान्य का उपयोग नहीं होता। टिप्पण
विशेषवादी अपने मत की पुष्टि में लोकव्यवहार का दष्टांत देते हुए कहता है कि जब घाव पड़ा हो या कोई अन्य रोग हुआ हो तब औषध का ग्रहण नहीं होता, अपितु स्पष्ट रूप से औषध विशेष का कथन करना पड़ता है। तभी उपयुक्त औषध प्राप्त होता है। व्यवहार में भी महत्त्व विशेष का ही होता है, सामान्य का नहीं, इसलिए विशेष धर्मात्मक है।
ऋजुसूत्रनयो वस्तु नातीतं नाप्यनागतम् ।
मन्यते केवलं किन्तु वर्तमान तथा निजम् ॥११॥ ऋजुसूत्र नय के मतानुसार अतीतकालीन वस्तु सत् नहीं है (क्योंकि अतीत बीत चुका होता है) इसी प्रकार भविष्यकालीन वस्तु भी सत् नहीं है (क्योंकि भावि के प्रति हम अनभिज्ञ हैं) अतः मात्र वर्तमानकालीन वस्तु ही सत् है ।
अतीतेनानागतेन परस्कीयेन वस्तुना। न कार्यसिद्धिरित्येत दसद्गगन पद्मवत् ॥१२।।
खंड २१, अंक २
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