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प्रयोग द्वारा केवल आधिकारिक कथा कहने की उनकी प्रवृत्ति है।
कथाकाव्यों में पात्रों द्वारा किये गये कार्य, परिस्थिति के प्रति उनकी मानसिक प्रतिक्रिया तथा भावाभिव्यंजना से उनके व्यक्तित्व और चरित का पता चलता है। कथाभिप्राय भी घटनाओं, कार्यों और परिस्थितियों से ही संबंध रखते हैं, अत: उनका उपयोग कथाकारों द्वारा वस्तु-योजना के लिए ही नहीं, चरित्र-चित्रण के लिए भी किया गया है । इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ विशेष कथाभिप्रायों के प्रयोग से कुछ विशेष प्रकार के चरित्र बन गये, जिन्हें हम वर्गीय-चरित्र या टाइप कह सकते हैं। उदाहरण के लिए कुछ विशेष प्रेममूलक अभिप्रायों के प्रयोग से ही प्रेमी--- नायकों के चरित्र का एक विशिष्ट वर्ग बन जाता है, जिसे "आदर्श-वर्ग" कहा जा सकता है । इसी तरह रोमांचक और साहसिक कार्यों वाले अभिप्रायों के प्रयोग से साहसिक वीर चरित्रों को युद्ध वीरों और दानवीरों से भिन्न "रोमांचक वीर नायक" वर्ग का कहा जा सकता है। नायकों के अतिरिक्त कथाओं के अन्य पात्रों के भी वर्ग निश्चित हो गये हैं।
इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जिन कथात्मक काव्यों में कथानक रूढ़ियों का अधिक प्रयोग होता है, उनके पात्र विशिष्ट वर्गों के प्रतिनिधि होते हैं। ये पात्र आदर्श और यथार्थ दोनों प्रकार के होते हैं। संस्कृत में कथासरित्सागर में भी विभिन्न अभिप्रायों के प्रयोग के कारण भिन्न-भिन्न पात्र वर्गों के आदर्श और यथार्थ दोनों प्रकार के चरित्र मिलते हैं। यही बात दशकुमारचरित में भी दिखाई पड़ती है। पर कादम्बरी और सुबन्धु की 'बासवदत्ता' में प्रायः सभी पात्र आदर्श-प्रेमी वर्ग के हैं । अपभ्रंश के चरित काव्यों में अधिकतर रोमांचक-वीर-वर्ग तथा धार्मिक-वीर-वर्ग के आदर्श चरित्रों की अधिकता दिखाई पड़ती है, यथार्थ चरित्रों की नहीं। निष्कर्ष यह कि अभिप्रायों के आधार पर निर्मित कथावस्तु वाले काव्यों में चरित्र-वैविध्य नहीं आ पाया है।
प्रत्येक कथा या कथात्मक काव्य का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होता है, कहीं वह प्रच्छन्न होता है, कहीं प्रकट धार्मिक और नैतिक उद्देश्य से धर्म-कक्षाओं, नीतिकथाओं और पौराणिक शैली के काव्यों की रचना होती है, पर अधिकतर प्राचीन कथा साहित्य का उद्देश्य चामत्कारिक कथा-प्रसंगों की योजना तथा विभिन्न प्रकार के संभावनामूलक और अतिरंजित कार्यो, घटनाओं आदि के वर्णन द्वारा लोकचित्त को अनुरंजित और आह्लादित करना होता है। इन दोनों प्रकार के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्राचीन कथा साहित्य में कथानकरूढ़ियों का बहुत अधिक प्रयोग किया गया है। केवल मनोरंजन के लिए जिन कथाभिप्रायों का प्रयोग होता है, वे प्रायः रोमांचक
और साहसिक कार्यों से संबंधित होते हैं, क्योंकि उनमें कुतूहल को जागृत रखकर पाठकों और श्रोताओं के चित्त को अनुरंजित करने की क्षमता होती है। इसलिए संस्कृत की कथा-आख्यायिकाओं में शुद्ध मनोरंजन के लिए इनका उपयोग हुआ है। प्राकृत और अपभ्रंश के चरित काव्यों में भी कथाभिप्रायों का प्रयोग इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हुआ है। २२६
तुलसी प्रज्ञा
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