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'सारस्वतव्याकरण' में समास
सारस्वतत्र्याकरण में प्राप्त समासों का उल्लेख करने से पूर्वं समास की परिभाषा इत्यादि के विषय में ज्ञान होना आवश्यक है । सारस्वत ग्रन्थ प्रणेता अनुभूतिस्वरूपाचार्य अर्थवद् विभक्तिविशिष्ट पदों को समास कहते हैं
"आर्थवद्धिभक्तिविशिष्टानां पदानां समासो निरूप्यते ( १ ) " ।
पाणिनि व्याकरण में समास की परिभाषा दी गई है-
[ डॉ० लज्जा पंत
" समसनं समास: ( २ ) " ।
" पद का तात्पर्य अर्थयुक्त तथा स्यादि विभक्त्यन्त से है । अन्य लोगों ने भी समास की भिन्न-भिन्न परिभाषाएं दी हैं । यथा
"उक्तमपि प्रसादकृक्ता -" ऐकपद्य मित्युपलक्षण मे कस्वर्यमे कविभक्तिकत्वं च ।” "धर्मकीर्तिनाप्युक्तम् —– एकपद्यमैकस्वर्यमेकविभक्तिकत्वं च समास प्रयोजनम् (३) । "
समास कहां पर होता है ? इस हेतु सारस्वतकार ने सूत्र दिया है- "समासचान्वये नाम्नाम्' अर्थात् नाम शब्द तथा अन्वय के योग से समास होता है। यहां "च" से तात्पर्य तद्धित से भी है । अतः भार्या पुरुष इत्यादि में अन्वय विपरीत होने के कारण समास नहीं होता । जैसा कि उक्त सूत्र की वृत्ति में भी कहा गया है
"नाम्नामन्वययोग्यत्वे सत्येव समासो भवति । चकारात्तद्धितोऽपि । ततो भार्या पुरुषस्येत्यादौ समासो न भवति ( पृ० २३४ सा० व्या० ) सारस्वतकार ने समास के छः भेद बताये हैं
अव्ययीभाव समास । तत्पुरुष समास । द्वन्द्व समास । बहुब्रीहि समास । कर्मधारय समास । द्विगु समास । इसे इस प्रकार व्याख्यात किया है
"अव्ययस्य अव्ययेन वा भवनं सोऽव्ययी भावः । स एवाग्रिमः पुरुषः प्रधानं यस्यासो तत्पुरुषः द्वन्द्वायते उभयपदार्थो येनासो द्वन्द्वः । बहुब्रीहि प्रधानं यस्मि - नसी बहुब्रीहिः । कर्म भेदकं धारयतीति कर्मधारयः । द्वाभ्यां गच्छतीति द्विगु: ( पृ० २२६, टिप्पणी अंश) । "
समास के भेद बताने के उपरान्त समास का प्रयोजन अथवा उद्देश्य क्या है ? यह जानना श्रेयस्कर है । वास्तव में अनेक पदों का विभक्ति-लोप करके एकपद करना ही समास का प्रमुख प्रयोजन है—
"ऐकपद्यमेकस्वयं मे कविभक्तिकत्वं
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च समास प्रयोजनम् (सा० व्या० पृ० २३७) ।” उदाहरणार्थ – देवश्च - देवश्च - देवश्च । यहां तीन पद हैं । यदि इन्हें संक्षेप में कहां जाय तो "देवाः " से ही उक्त का बोध हो जाता है । अतः कहने का आशय यह
खण्ड २१, अंक २
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