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त्वं करोति कु पर थका, त्वङ करोति होय ।। सं परति पु पर थकां, सम्परति म जोय ॥५॥ एक ठोड रहै मूलगी, अनुस्वार अवलोय ।। एक ठोड यप सवर्ण ह, यप पर थी यम जोय ॥५९।।
---व्यंजन संधि दोहा ४४ से ५९ जयाचार्य ने पंच संधि के कुछेक सूत्रों की दोहों में व्याख्या नहीं दी। इसका कारण संभवतः यह था कि वे संधि के अतिरिक्त प्रकरण से संबंधित थे। जैसे-है हयोः स्वरे संधि न।
है और हे के योग में संधि नहीं होती। वहां उदाहरण हसान्त पुल्लिग में हैंहे अनड् वान् । यह सूत्र हसांत पुंलिंग से संबंधित है ।
उपसर्गादवर्णान्ताद ऋकरादो घातौ च ऋकरादो नाम घातो वा
ये सूत्र धातु से संबंधित है इसलिए इनकी व्याख्या नहीं की। संस्कृत व्याकरण में लघु प्रक्रिया में एक प्रकरण के सूत्र दूसरे प्रकरण में ग्रहण किये जाते हैं। उत्तरार्द्ध के सूत्र पूर्वार्द्ध में आवश्यकतानुसार उपयोग किए जाते हैं। जयाचार्य ने पंच संधि से संबधित सूत्रों को ही अपनी जोड में स्थान दिया है । इस दृष्टिकोण से कई सूत्र अव्याख्यायित ही रह गए हैं।
पंच संधि की जोड में दो सूत्रों के अंतिम शब्द में कुछ परिवर्तन है । जैसे१. वो लॊपश् वा पदांते । २. ओष्टो त्वोवौं समासे ।
प्रथम सूत्र के अंत में पदांते शब्द है और दूसरे सूत्र के अंत में समासे शब्द है। जयाचार्य ने अपने दोहों में पदांत ङि और समास डि किया है। विभक्ति को शब्द से अलग किया है । इस प्रकार मैंने कुछेक सूत्रों के कतिपय विन्दुओं पर प्रकाश डाला है । जिज्ञासु पाठक स्वयं 'पंचसंधि जोड़' को ध्यान से पढ़ेगे तो और भी अनेकों रहस्य उजागर हो सकते हैं। यहां इस जोड़ की अविकल प्रतिलिपि प्रस्तुत की जा रही हैसारस्वत व्याकरण के सूत्र सहित पंचसंधि जोड के दोहे
पंच संधि जोड़ सूत्र --अ इ उ ऋ लु समानाः ।
अ इ उ ऋ ल ए पांचवर्ण समानसंज्ञा सोय ।
सवर्ण कहियै केहन, न्याय तसुं अवलोय ॥१॥ सूत्र-ह्रस्व दीर्घप्लुत भेदा: सवर्णाः ।
ह्रस्व दीर्घ प्लुत भेद वर सजातीया इक स्थान । अन्यो अन्य सवर्ण कहा, ऋ ल वर्ण वलि जान ॥२॥ एक मात्र ते ह्रस्व है, द्विमात्रे दीर्घ देष । त्रिमात्र प्लुत कहीजीये, मात्र काल संपेष ॥३॥
खण्ड २१, अंक २
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