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व दास, मध्ययुग में सामन्त व सेवक तथा कामदार, आधुनिक युग में मजदूर व पूंजीपति आदि वर्ग रहे हैं, क्योंकि विभिन्न समूहों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में परस्पर भिन्नताएं पाई जाती हैं, फलतः उनके जीवन प्रतिमान एक-दूसरे से मेल नहीं खाते और ये समूह कालान्तर में विभिन्न वर्गों का रूप ले लेते हैं । प्रत्येक वर्ग सामाजिक एवं आर्थिक उपयोगिता की दृष्टि से स्वयं को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानता है । इस प्रकार की स्थिति उनके बीच विवादों व संघर्ष को जन्म देती है । श्रमिक व पूंजीपति, जमींदार व कृषक, उच्च व निम्न आदि वर्ग इसके उदाहरण हैं । वर्ग संघर्ष विश्व के सभी समाजों में पाया जाता है । कार्लमार्क्स ने कहा था - " समाज सदैव दो आर्थिक वर्गों में बंटा रहेगा- शोषक व शोषित । ये वर्ग सदैव एक दूसरे के साथ संघर्षरत रहेंगे जब तक कि वर्ग-विहीन समाज की स्थापना न हो जाय ।"
४. जातीय संघर्ष
जातीय संकीर्णता आज सामाजिक संघर्षों का एक प्रमुख कारण बनी है । हम कुछ जातीय पूर्वाग्रहों का पालन करते हैं क्योंकि इनसे हमें सुरक्षा, प्रतिष्ठा तथा मान्यता जैसी कतिपय गहन आवश्यकताओं की संतुष्टि दीखती है । यद्यपि कानूनी रूप से विभिन्न जातियों के बीच ऊंच-नीच की भावना को स्वीकार नहीं किया गया है फिर भी ऊंच-नीच की भावना के कारण विभिन्न जातियों में वैर भाव रहता है तथा जातीय संघर्ष चलते रहते हैं । भारत में जातीय तनाव अधिक देखने को मिलता है । जैसे मणिपुर में नागा व कुकी जाति का विवाद, बिहार में लाला व ब्राह्मण जाति का विवाद आदि-आदि। इन जातीय विवादों के कारण आज भारतीय राजनीति का मुख्य आधार ही जातिवाद बन गया है, जिससे सामान्य जनता सदैव आपसी संघर्षो में उलझी है ।
५. राजनैतिक संघर्ष
राजनैतिक संघर्षों के दो रूप हैं- राष्ट्रीय संघर्ष एवं अन्तरर्राष्ट्रीय संघर्ष | जातिवाद, साम्प्रदायिक तनाव, राजनैतिक तनाव, उग्रवाद, पृथक्करण, विभाजन आदि राष्ट्रीय संघर्षो के प्रमुख कारण बनते हैं । अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष की अभिव्यक्ति के भी अनेक रूप हैं, जैसे घृणा तथा आक्रामकता की अभिवृत्ति, जिसके फलस्वरूप समाचार पत्रों, रेडियो व दूरदर्शन पर भड़कीले समाचार प्रसारित कर मगोवैज्ञानिक युद्ध किया जाता है । स्वजातिवाद की पृष्ठभूमि भी अन्तर्राष्ट्रीय तनाव का एक प्रमुख कारण है । अडोनों ने यह दर्शाया है - जिन व्यक्तियों में यह सोचने की अतिरंजित प्रवृत्ति है कि उनका अपना समूह अथवा जाति अन्य जातियों से अत्यन्त श्रेष्ठ है, उनका सामान्य दृष्टिकोण रूढ़िवादी होता है तथा वे शक्ति की प्रशंसा व पराजितों से घृणा करते हैं जिससे वे दूसरों को अपने समान स्थान देने को तैयार नहीं होते । फलत: विदेशियों व अल्पसंख्यकों को हीन दृष्टि से देखा जाता है तथा उनमें असुरक्षा की भावना उत्पन्न होती है। इससे सैनिक संगठनों को बल मिलता है । राष्ट्रवादी अभिवृत्तियों के साथ-साथ अन्य देशों के प्रति प्रबल नकारात्मक भावना हो और अन्तर्राष्ट्रीय भावना का अभाव हो तो उस स्थिति में अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष उत्पन्न हो ही
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तुलसी प्रज्ञा
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