Book Title: Tulsi Prajna 1995 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 75
________________ जबकि लड़का नौकरीपेशा होता है। क्योंकि नौकरी करने वाले लोगों की आय सीमित होती है और खर्चे असीमित । इसलिये परिवार आर्थिक-संकट से घिरा रहता है । यदि पत्नी भी पढ़ी-लिखी है और इस योग्य शिक्षा प्राप्त कर ली है कि वह भी आर्थिक-संकट को दूर करने के लिये कोई कार्य करने में समर्थ है तो यह सर्वोत्तम है । कभी होता यह है कि लड़का मेडीको है या इंजीनियर है या आई० ए० एस०, पी० सी० एस० आदि उच्च शिक्षा प्राप्त किया हुआ है और लड़की केवल हाई स्कूल इण्टर पास है तो वह अपने पति की भावना को समझने में असमर्थ रहती है । उसके सोचने का दृष्टिकोण अपने पति से लगभग भिन्न ही रहता है । इसलिये विवाह से पूर्व होने वाले पति-पत्नी के शिक्षा का स्तर दाम्पत्य जीवन के सुख का एक आवश्यक अंग है । यह तथ्य व्यवसाय में लगे हुए लोगों पर लागू नहीं होता है । उनके लिये तो ठीक इसके विपरीत बात कहीं ज्यादा सफल होते देखी गई है । जैसे, छोटे से लेकर बड़े स्तर की दुकानदारी करने वाले व्यक्ति को सुबह ८ बजे घर से चला जाना है और रात को लगभग ८ बजे के बाद ही घर में आना है। उसे १२ घंटे से ज्यादा घर से बाहर गुजारने हैं। ऐसी स्थिति में बुद्धिजीवी या अधिक पढ़ी-लिखी लड़की अपने जीवन में एक प्रकार की रिक्तता महसूस करती है । अकेलापन उसे खलता है। इसलिये इस प्रकार के लड़कों के लिये घरेलू लड़की अर्थात् समान व्यवसायी परिवार की लड़की ही उपयुक्त होती है । इस प्रकार वह अपने को घरेलू काम-काज में, बच्चों के पालन-पोषण में, घूमने-फिरने में और सम्मलित परिवार के उत्तरदायित्व वहन करने में अपने को परम सुखी महसूस करती है। दाम्पत्य जीवन के दुःख और सुख का विश्लेषण किया जाए तो यह तथ्य सामने आता है कि दाम्पत्य जीवन की सारी बैचेनी बड़े परिवार के कारण होती है। इसमें दो राय नहीं है कि सीमित परिवार स्वर्ग-समान होता है। सबसे उत्तम दाम्पत्य जीवन तो पति-पत्नी और दो या तीन बच्चों से मिलकर बनता है। जहां लड़के के मातापिता अर्थात् पत्नी के सास-ससुर होते हैं वहां दाम्पत्य जीवन में समय-समय पर कुछ बैचेनी का सामना करना पड़ता है, किंतु यदि लड़का यह समझकर व्यवहार करे कि मैं माता-पिता का पुत्र हूं तो दूसरी ओर मैं पति भी हूं। इस प्रकार मेरे उत्तरदायित्व दोनों के प्रति महत्त्वपूर्ण हैं। केवल पत्नी का पति बन जाना और माता-पिता को नजरअन्दाज करना या माता-पिता के बहकावे में आकर पत्नी को बात-बात पर तिरस्कार करना या बुरा-भला कहना, दाम्पत्य-जीवन को लात मार देना है। इसी प्रकार लड़की को अपने माता-पिता का घर छोड़कर नये घर में आना, अग्नि-परीक्षा के समान होता है। अपने घर की परिस्थितियों में, रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा और व्यवहार के तौर-तरीकों में जीवन का महत्त्वपूर्ण समय गुजारने वाली लड़की को यह समझ लेना चाहिये कि अब उसे अपने पति के घरेलू माहोल के साथ मिलजुलकर चलना है। सास-ससुर को अपने माता-पिता से अधिक महत्त्वपूर्ण मानना है । माता-पिता का अगाध प्रेम पाने वाली बिटिया को बड़ी जिम्मेदारी के साथ समायोजन स्थापित करने में कोई कसर नहीं उठा रखनी चाहिये । दाम्पत्य-जीवन में प्रारम्भ के १८४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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