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है। वैसे ही दीर्घ को दीर्घ करना व्यर्थ है । ___ सारस्वत व्याकरण में अन्य मत का उल्लेख है। विशेष कर संधि-प्रकरण में जैनेन्द्र व्याकरण की मान्यता दी है। गो शब्द पदांत में हो और आगे अक्ष शब्द हो तो संज्ञा विषय में ओ को अव हो जाता है। जहां संज्ञा वाचक न हो वहां ओ का अव नहीं होता । जयाचार्य ने इस भाव को दोहों में गुंफित किया है
जिनेंद्र व्याक्रण मैं कह्यो, गो पदांत जद होय ।। अक्ष परे संज्ञा विष, ओ अव तहां सुजोय ॥१६॥ नाम बिना गो अक्ष नों, गोक्ष सिद्ध इम थाय ॥१७॥
-स्वर संधि दोहा १६, १७ । सारस्वत व्याकरण में जहां न्याय का प्रयोग हुआ है वहां जयाचार्य ने भी जोड में उसकी उपेक्षा नहीं की है।
जलतुम्बिक न्याये करी, रेफ उर्ध्व गमनाय ।
अग्र रेफ अध जात है, पूर्व रेफ उर्द्ध थाय ॥५॥ शब्दों की सिद्धि में सूत्रों का उपयोग होता है । जहां एक साथ दो सूत्र लगते हों वहां किसको प्रधानता (प्राथमिकता) दी जाए इसके लिए न्याय का सहारा लिया जाता है । जयाचार्य के दोहों में इस प्रकार है
सामान्य सूत्र थकी हुवै, विशेष बलिष्ट पेष । बहु व्यापक सामान्य हुवै, व्यापक अल्प विशेष ॥२८॥ अथवा पर सूत्रे करी, पूर्व सूत्र ह्र बाध । बहुल पण ए स्थूल मति, सर्वत्र नियमन साध ।।
-स्वर संधि दोहा २८,२९ सामान्य सूत्र से विशेष सूत्र बलवान होता है। सामान्य सूत्र वह होता है जो व्यापक होता है, विशेष सूत्र वह होता है जो कम शब्दों से सीमित क्षेत्र में कार्य करता है । सामान्यतया पूर्व सूत्र से आगे का सूत्र बलवान होता है। आगे के सूत्र को यदि पूर्व सूत्र बाधता है तो वह बलवान होता है। इन न्याय के नियमों को जयाचार्य ने दो पदों मे सरलता और स्पष्टता से समझाया है।
कहीं कहीं सूत्र का उल्लेख न कर केवल संकेत देकर उसके भाव को उदाहरण सहित स्पष्ट किया है।
सूत्र है-तद् वृहतोः करपत्योशचोसदेततयोः सुट लोपश्च ।
इस निपात सूत्र को संक्षेप में "वाचस्पत्यादि नाम का" संकेत देकर उसके निपात शब्दों को उजागर किया है ।
वाचस्पत्यादि नाम जे, निपात थी सिद्ध होय । वाचः पति वाचस्पति, इत्यादिक बहु जोय ॥८॥ तत् वृहत् आगे कर पति, चोर एक इक देव सुट् आगम त लोप ह, तस्कर बृहस्पति हेव ॥९॥ कारः कर कारस्करः, पारः पर नौ पेष पारस्परः भाः कर तणी, भास्कर रवि संपेष ॥१०॥
खण्ड २१, अक २
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