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दाम्पत्य जीवन और उत्तरदायित्व
ब डॉ० आर० के० ओझा
आज के युग में जहां जीवन विषम परिस्थितियों से घिरा हुआ है, वहां वैवाहिक जीवन को सुखपूर्वक काट लेना, एक गम्भीर समस्या बन गई है। आर्थिक-संकट ने और धनार्जन की लिप्सा ने चिन्तन की धारा और मानसिकता को बदल दिया है। आर्थिक मूल्य ने रिस्ते खतम कर दिये हैं, परिवार और समाज के प्रति जो जिम्मेदारियां होती हैं उनके प्रति कोई लगाव नहीं रहा है । बड़े परिवार, निरर्थक शिक्षा, आर्थिक संकट, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, फैशन, फिल्म और दूसरे के बराबर आ जाने की होड़ ने व्यक्ति की मानसिकता को निश्चित रूप में प्रभावित किया है। इस बदलती मानसिकता ने पति की पत्नी के प्रति और पत्नी की प्रति के प्रति जो भावना होनी चाहिए थी उनको प्रभावित किया है। जिम्मेदारी को निभाना, सहनशीलता तथा समायोजन जैसी भावनाएं कमजोर पड़ गई हैं।
गृहस्थ जीवन का परम-सुख पति-पत्नी के सम्बन्धों में निहित होता है। धन, वैभव, प्रतिष्ठा, रहन-सहन के अच्छे से अच्छे साधन, सन्तान, मित्र आदि जीवन को सुखी बनाने में तब तक सहयोगी नहीं हो सकते जब तक पति-पत्नी में समायोजन की भावना की कमी होगी । समायोजन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी परिस्थितियों से ताल-मेल बैठाते हुए व्यवहार करता है । आज उस पुरानी वृत्ति की कोई आवश्यकता नहीं रह गई है कि 'हम झुकेंगे नहीं टूट जायेंगे'। जैसे-जैसे समय बदलता है वैसे-वैसे सब कुछ बदलता है। इसलिए जो सुख-पूर्वक रहना चाहता है उसे भी समय के साथ बदलना होता है । पचास वर्ष पूर्व के मूल्यों से नियन्त्रित होकर दाम्पत्य जीवन को संतुलित नहीं बनाये रखा जा सकता है। आज आपकी पत्नी के प्रति आपके माता-पिता का वह रवैय्या जो उनके साथ उनके सास-ससुर ने अपनाया था, घोर संकट पैदा कर देता है । पत्नी के लिये अनावश्यक पर्दा, पुरानी घिसी-पिटी लकीर पर चलने की जिद, पत्नी में चिड़चिड़ापन पैदा कर देता है।
इस प्रकार दाम्पत्य जीवन और उसके उत्तरदायित्व के विषय में चर्चा करते वक्त कुछ ऐसे कारकों का विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है जो विवाह से पूर्व मौर विवाह के पश्चात् ध्यान देने योग्य होते हैं। यदि इन पक्षों की उपेक्षा कर दी जाती है तो दाम्पत्य जीवन कष्टपूर्ण ही गुजरता है जो बाद में चलकर संतान के व्यवहार को भी प्रभावित करता है।
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