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संशा को मानकर ही रूप संरचना को बताया है । 'द्विगु' तत्पुरुष का भेद मात्र है। सारस्वतकार ने द्विगुसमास का पृथक् अस्तित्व निर्धारण किया है। जिससे द्विगु समास को समझने में किसी प्रकार की क्लिष्टता सामने न आये।
.. सारस्वतकार ने द्विगु समास का उदाहरण प्रस्तुत किया है-दशग्रामी=दशानां ग्रामानां समाहारः । यहां संख्यावाचक पद पूर्व में होने के कारण “संख्यापूवों द्विगुः" सूत्र में द्विगु समास हुआ। यहां "दशानां" रूप षष्ठी एकवचन का है। अतः समास संज्ञा होने पर “समास प्रत्यययोः" सूत्र से विभक्ति लोप होने पर दश+ग्राम यह स्थिति हुई । इह दशा में अग्रिम सूत्र की अवतारणा की गई है-"समाहारेऽत ईप द्विगुः" अर्थात् द्विगु समास में अकारान्त परे ईप् प्रत्यय होता है। अतः उक्त सूत्र द्वारा ई (पित) आगम होने पर "दशग्रामी" रूप सिद्ध हुआ। चूंकि ईयागम पात्रादि में नहीं होता। अतः शेष स्थानों में ईप का प्रयोग नहीं होगा। यथा
___ “पञ्चाग्नयः समाहृता इति पञ्चाग्नि ।" पञ्चानां गवां समाहारः इति पञ्चगु पञ्चगवम वा" इत्यादि ।
"एकत्वे द्विगुद्वन्द्वो (११)" सूत्र के अनुसार एकत्वभाव में वर्तमान द्विगु तथा द्वन्द्व समास नपुंसकलिंग में होते हैं । यथा-पञ्चगवम् इत्यादि । बहुब्रीहि समास
बहुब्रीहि समास करने हेतु सारस्वत कार ने सूत्र दिया है ।-"बहुब्रीहिरन्यार्थेअन्यपदार्थ प्रधानो यः समासः स बहुब्रीहि संज्ञको भवति ।" अर्थात् जिस समास में अन्य पद प्रधान होता है वह बहुब्रीहिसंज्ञक होता है। इसका उदाहरण दिया गया है"बहुधनं यस्य सः बहुधनः ।" यहां अन्य पद प्रधान होने के कारण बहुव्रीहि समास हुआ। ____ इसी प्रकार अन्य उदाहरण प्रस्तुत करते हैं -लम्बी कणों यस्य सः-लम्बकर्णः (२) । यहां यह शंका उठ सकती है-लम्बकर्ण: में अन्य पदार्थ की प्रधानता होने के कारण बहुब्रीहि समास हुआ है। किन्तु पद साम्य होने के कारण क्या "कर्णलम्बः का प्रयोग किया जा सकता है ? इस शंका के समाधान हेतु सूत्र दिया गया है"बहुब्रीही विशेषणसप्तम्यन्ततोः पूर्व निपातो वक्तव्यः (पृ० २५५)।" अर्थात् बहुव्रीहि समास में जो विशेषणभूत सप्तम्यन्त पद होता है वही पद पूर्व निपात के रूप में पहले प्रयोग किया जाता है । अतः इस सूत्र के आधार पर उक्त शंका का समाधान होकर "लम्बकर्णः ही प्रयोग होगा।
___ "रूपवद्भार्याः का विग्रह है-रूपवती भार्या यस्य सः। यहां "बहुव्रीहि रन्यार्थे" सूत्र से बहुब्रीहि समास होने पर विभक्ति लोप हुआ। “लिङ्गयर्थे प्रथमा" : सूत्र के द्वारा प्रथमा एकवचन में प्राप्त "सि" विभक्ति का "आपः" सूत्र से लोप होकर रूपवती भार्या यह शेष रहा। तदनन्तर "अन्यार्थे"-स्त्रीलिंगस्यान्यार्थे वर्तमानस्य हस्वो भवति" सूत्र से “भार्या" शब्द को हस्व होकर रूपवती भार्य यह स्थिति हुई। इसी के अन्तर्गत अग्रिम सूत्र की अवतारणा की गई है-- "पुंवद्धा-समासे सति समानाधि करणे पर्वस्य स्त्रीलिंगस्य वद्धा भवति । पुंवदभावादीयो निष्पत्ति (पृ० २५७) । उक्त खण्ड २१, अंक २
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