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विचार शुद्ध हुए, श्रद्धा का संचरण हुआ और उन्होंने कठोरतम मुनि जीवन को स्वीकार कर लिया। (ग) तप, व्रत, संयम
हरिकेश ने कठोरतम जीवन को स्वीकार कर तपस्या करनी प्रारम्भ कर दी। तप साध्य प्राप्ति का साधन है । श्रमण संस्कृति तपोमय रही है। वैदिक संस्कृति में भी तप का उल्लेख मिलता है । मुण्डकोपनिषद् में कहा है-'तपस्सा चीयते ब्रह्म'तप से ही ब्रह्म को खोजा जाता है। इसी का एक रूप तैतिरीयोपनिषद् में भी मिलता है-तपसा ब्रह्म विजिज्ञास्व-तप से ही ब्रह्म को जानो। गीता में तप के तीन रूप बताये हैं-शारीरिक, वाचिक, मानसिक । इसके अतिरिक्त गीताकार ने अहिंसा सत्यादि को तप के अन्तर्गत माना है। बौद्ध दर्शन में भी तप की महिमा के गीत गाये गये। जैन दर्शन में तप का महत्त्वपूर्ण स्थान है । आचार्यमलयगिरी ने कहा"तापयति अष्ट प्रकारं कर्म इति तपः"--जो आठ प्रकार के कर्मों को तपाता है, वह तप है । तप निर्जरा का सर्वोत्तम साधन है। इसलिए हरिकेश मुनि ने तप की महिमा के गीत गाये हैं और अपने जीवन में उसको महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है, उन्होंने स्वयं ब्राह्मणों को प्रतिबोध देते हुए कहा है
तवो जोइ जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं.......५ तप ज्योति है। जीव ज्योतिस्थान है । योग घी डालने की करछियां हैं । शरीर अग्नि जलाने के कण्डे हैं। कर्म इंधन है। संयम की प्रवृत्ति शांति पाठ है।
तप की तरह संयम भी धर्म का एक लक्षण है। दसर्वकालिक में कहा है"धम्मो मंगल मुक्कि अहिंसा संजमो तवो।""जिनदास महत्तर के अनुसार संयम का अर्थ है-उपरम । राग-द्वेष से रहित हो एकीभाव-समभाव में स्थित होना संयम है। समभाव से अष्ट कर्मों का क्षय होता है। आश्रव का निरोध होता है। हरिकेश मुनि ने संयम की आराधना की और कसौटी पर पूर्णतया सफल हुए । हरिकेश मुनि भिक्षा के लिए यज्ञशाला में गये । ब्राह्मणों के द्वारा अपमानित किए जाने पर भी उनके मन में कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई । जब ब्राह्मण उनसे जीवन दान की याचना करते हैं तब उनके मुख से सहज ही निकलता है
पुवि च इण्हि च अणागयं च, मणप्पदोसो न मे अत्थि कोइ ।
जक्खा हु वेयावडियं करेंति, तम्हा हु एए निहया कुमारा ॥" अर्थात् मेरे मन में कोई प्रद्वेष न पहले था, न अभी है । और न आगे भी होगा। किन्तु यक्ष मेरा वैयावृत्य कर रहा है । इसलिए ये कुमार प्रताडित हुए हैं। (घ) आत्म-बोध
समत्व में रमण करना ही आत्म-दर्शन है । दर्शन जगत् में दो तत्त्व बहुचर्चित रहे हैं-(१) आत्मवाद (२) अनात्मवाद । अनात्मवाद के अनुसार पुनर्जन्म, कर्म आदि कुछ नहीं है। परन्तु आत्मवाद के अनुसार पुनर्जन्म है, इस जगत् का कोई कर्ता है ।
आत्मा अपने पुरुषार्थ के द्वारा ही परमात्मा बन सकती है। हरिकेश मुनि ने
खण्ड २१, अंक २
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