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'तत्र प्रत्ययैतानता ध्यानम् के समान ही परिभाषा उपलब्ध होती है - सर्वशरीरेषु चैतन्यैकतानता ध्यानम् " अर्थात् सारे शरीर में रहने वाले चैतन्य में एकतानताएकाग्रता ध्यान है | मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है कि ज्ञानप्रसाद के द्वारा विशुद्ध सत्त्व होकर ध्यान करते हुए आत्मा को देखे –
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ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्वस्ततस्तु तं पश्येत् निष्कलं ध्यायमानः ।" प्रश्नोपनिषद् में ऊंकार पर ध्यान करने का निर्देश मिलता है । "
६. ७. मैं पूर्वजन्म में कौन था, अगले जन्म में कहां उत्पन्न होऊंगा ? मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है -- इत्यादि का ज्ञान यानी निजविषयक ज्ञान के तीन साधनों का उल्लेख आचारांग सूत्र (१.३) में प्राप्त होता है
६. ७.१. सहसम्मुइयाए -स्वस्मृति से कुछ बच्चों को जन्म से ही ( बचपन से ही ) पूर्वजन्म की सहज स्मृति प्राप्त होती है। आधुनिक परामनोविज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार करता है । सुश्रुतसंहिता में यह निर्दिष्ट है कि पूर्वजन्म में जो व्यक्ति शास्त्रों के अभ्यास से अपना अन्तःकरण भावित कर लेते हैं, उन्हें पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है
भावितः पूर्वदेहेषु सततं शास्त्रबुद्धयः ।
भवन्ति सत्त्वभूयिष्ठाः पूर्वजातिस्मराः नराः ॥ ७
६.७.२. परवागरणेणं - परव्याकरण अर्थात् आप्तपुरुष के साथ व्याकरण प्रश्नोत्तरपूर्वक मनन कर कोई उस ज्ञान को प्राप्त करता है । भाष्यकार ने उदाहरण स्वरूप मेघकुमार की कथा को उपस्थापित किया है ।" उपनिषदों में अनेक ऐसे प्रसंग मिलते हैं जिसमें यह निर्दिष्ट है कि आत्मविद्या का जिज्ञासु प्रश्नोत्तर - शैली के द्वारा आत्मज्ञान को प्राप्त करता है । कठोपनिषद् में नचिकेता यमराज, मुण्डकोपनिषद् में महाशालअङ्गिरस्, प्रश्नोपनिषद् में भारद्वाजादि ऋषि - पिप्पलाद, बृहदारण्यक० में याज्ञवलक्य - मैत्रेयी आदि संवाद 'परवागरणेणं' के ही उदाहरण हैं ।
६. ७.३. अण्णेस वा अंतिए सोच्चा - ( दूसरों के अतिशय ज्ञानी के द्वारा स्वत: ही निरूपित तथ्य को प्राप्त कर लेता है ।
पास सुनकर ) बिना पूछे किसी सुनकर कोई पूर्वजन्म का संज्ञान
७. आत्मविद्या का अधिकारी - प्रश्न उठता है कि आत्मविद्या का अधिकारी कौन हो सकता है । क्या योग्यता होनी चाहिए ? इन प्रश्नों का समाधान आचारांग और उपनिषद् उभयविध स्थलों में प्राप्त होता है । आचारांग में अनेक सूक्ष्म तथ्य प्रकीर्ण हैं जिसको एकत्रित करने पर आत्मविद्या के अधिकारी पर पूर्ण प्रकाश पड़ सकता है । आत्मदर्शी ३.३६, आत्मनिग्रही ३.६४, सत्यान्वेषी ३.६६, द्रष्टा ३.८७, शरीर के प्रति अनासक्त ४.२८, अनिदानी ४.२८, वीतराग उपदेश में श्रद्धावान् ५.१२२, कामभोगों में उदासीन ३.४७, समता धर्म में निरत ३.५५, कामनामुक्त ३.६५, तितिक्ष २.११४, ११५, श्रद्धावान् ३.८०, विषयविरक्त ४.६, अप्रमत्त ५.२३, मेधावी २.२७, ज्ञानी ३.५६, साधक ३.७८, धीर पुरुष २.११, संयमी २.३५, अलोभी २.३६, सम्यग्दर्शी २.५३, तत्त्वदर्शी २.११८, अपरिग्रही २.५७, धर्मकथी २.१७४, कुशल २.१८२ आदि
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तुलसी प्रज्ञा
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