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एक तुलनात्मक अनुशीलन :
उपनिषद् और आचारांग
डॉ० हरिशंकर पाण्डेय
ऋषि प्रतिभा से संभूत आक्षरिक ज्ञान-सागर का सार्थक अथवा अन्वर्थक अभिधान है-उपनिषद् तथा सत्यदर्शन समर्थ अनन्त-चतुष्टय सम्पन्न तीर्थकर की आप्त-मेधा का शाब्दिक-संविधान है-आगम । कालुष्य-संसार को स्वणिमविभूति में परिणत कर उस पार संगमन-सामर्थ्य की लब्धि का नाम है-उपनिषद् तथा दु:खदैन्य पीड़ित अवस्था से ऊपर उठकर परम सत्य का संधान अथवा ऋत-निकेतन किंवा परमपद की उपलब्धि का अपर संज्ञान है आगम । दोनों आत्मविद्या अथवा आविर्भूतअर्थसंवेदनात्मक परम-विद्या के पर्याय हैं इनका भाक्त (गौण) प्रयोग ग्रन्थ रूप में होता है । गुरु-परम्परा से आगत होने के कारण दोनों श्रुति शब्द से वाच्य हैं क्योंकि शिष्य-प्रशिष्य परम्परा में इन्हें स्मृति के आधार पर याद रखने की प्रथा थी।
_ 'ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्" से प्रारम्भ होकर 'येनासं न अमृला स्यां किमहं तेन कुर्या', अहं ब्रह्मास्मि', अहं सः, सोऽहमिति में परम प्रतिष्ठा की साधनभूत विद्या का नाम है-'उपनिषद्', तो सत्य का सात्त्विक अन्वेषण एवं सोऽहं में प्रतिष्ठा प्रापक संसाधन का संधानात्मक अभिधान है आगम । दोनों श्रुति-विद्या, आत्मविद्या, आप्तवाणी, ऋषिवचन आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं।
प्रस्तुत सन्दर्भ में उपनिषद् और आचारांग का तुलनात्मक अनुशीलन अभिधेय
१. उपनिषद् और आचारांग (प्रथम अंग आगम) दो विभिन्न परम्पराओं के प्रतिनिधि ग्रन्थ हैं। वैदिक ज्ञानकांड का नाम उपनिषद् है तथा आचारांग जैन परम्परा का आधारभूत ग्रन्थ आगम के अन्तर्गत अंगप्रविष्ट में प्रथम स्थान पर परिगणित है। आचारांगसूत्र दो श्रुतस्कन्धों में विभाजित है-प्रथम में नव-अध्ययन है तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध आचारचूला के नाम से प्रसिद्ध है। २. दोनों का प्रारम्भ दुःखमुक्ति की अभिलाषा अथवा आत्मजिज्ञासा से होता है । आ. का ऋषि सर्वप्रथम इसी चर्चा में तल्लीन दिखाई पड़ता है कि मैं कौन हूं, मेरा स्वरूप क्या है-'के अहं आसी? के वा इओ चुओ पेच्चा भविस्सामि ?" अर्थात् मैं कौन था ? मैं यहां से च्युत होकर अगले जन्म में क्या होऊंगा ? । लगभग सभी प्रमुख उपनिषदों का प्रारम्भ भी इसी बिंदु से होता है। कठोपनिषद् के नचिकेता का प्रमुख वरदान यही है-वरस्तु मे वरणीयः स एव ।' पंड २१ अंक २
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