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'हरिकेशीय आख्यान' का समीक्षात्मक अध्ययन
साध्वी संचितयशा
पुरातन काल से मानव का जीवन अध्यात्म और विज्ञान से जुड़ा हुआ है। ये दोनों पद्धतियां सत्य को साक्षात्कार कराने वाली हैं। दोनों पद्धतियों में मुख्य अंतर यह है कि एक अन्तर्दृष्टि को जगाती है तो दूसरी बार दृष्टि को।
जैन आगम आध्यात्मिक जीवन को ज्योतिर्मय बनाता है। आगम सत्यं शिवं सुन्दरं की अनुभूति की अभिव्यक्ति है । यह तीर्थङ्करों की वाणी है। जिसके माध्यम से व्यक्ति शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकता है । डॉ० हर्मन जेकोबी, डॉ० शुबिंग आदि पाश्चात्य विद्वानों ने जैन आगमों का अध्ययन करके यह घोषित किया कि जैन आगम विश्व को अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांतवाद के द्वारा सर्वधर्म समन्वय का पुनीत पाठ पढ़ाने वाले हैं।
जैन आगमों का विभाजन दो रूपों में मिलता है-पूर्व और अंग । इसका एक वर्गीकरण अंग प्रविष्ट और अंग बाह्म के रूप में मिलता है । आर्यरक्षित ने अनुयोग के आधार पर जैन आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त किया-(१) चरणकरणानुयोग (२) धर्मकथानुयोग (३) गणितानुयोग और (४) द्रव्यानुयोग। अनुयोग शब्द 'अनु' और 'योग' के संयोग से बना है । अनु उपसर्ग अनुकूल अर्थ वाचक है। सूत्र के साथ अनुकूल या सुसंगत संयोग अनुयोग है । वृहत्कल्प में कहा
अणुणा जोगो अणुजोगो अणु पच्छाणुभावओ य थेवे य ।
जम्हा पच्छाऽभिहियं सुत्तं थोवं च तेणाणु ।' अनु का मतलब है--पश्चात् भाव या स्तोक । इस दृष्टि से अर्थ के पश्चात जायमान या स्तोक सूत्र के साथ जो योग है, वह अनुयोग है । आवश्यक नियुक्ति की वृत्ति में आचार्य मलयगिरि ने लिखा है--सूत्रस्यार्थेन सहानुकूलं योजनमनुयोग:"अर्थ के साथ सूत्र की जो अनुकूल योजना की जाती है, उसका नाम अनुयोग है। आचार्य हरिभद्र और अभयदेव सूरि ने भी अनुयोग की इस रूप में व्याख्या की है। षट्खंडागम में अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वर्तिका-इन शब्दों को समानार्थक माना गया है । अनुयोग का एक अर्थ व्याख्या के रूप में मिलता है। जिसके आधार पर ही अनुयोग को चार विभागों में विभाजित किया गया है। उनमें उत्तराध्ययन धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत है । धर्मकथानुयोग में अहिंसा आदि स्वरूपों का कथन आख्यानों से किया जाता है। उत्तराध्ययन में अर्हत् धर्म-दर्शन को समुद्घाटित करने के लिए अनेक आख्यानों का उपस्थापन किया गया है । प्रस्तुत संदर्भ में हरिकेशवल
बंर २१, अंक २
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