Book Title: Tulsi Prajna 1995 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 14
________________ अपने आराध्य की स्तुति करते-करते, अपनी स्तुति करने लगता है। यही जैन अध्यात्म का रहस्य है। इसमें भक्त जब अपने स्तुत्य के गुणों पर विचार करता है, तब उसे अपने साथ समानता का अहसास होता है। वह अपने भीतर विराजे परमात्मा के दर्शन करने लगता है । यही तो सम्यक्-दर्शन है । इस दिशा में भक्तामर स्तोत्र का २३ वां, २४ वां और २५ वां श्लोक दृष्टव्य हैं, जहां अर्हन्त-सिद्ध परमात्मा और अपने परमात्मा (आत्मदेव) का साम्य दर्शाया गया है, चौबीसवें श्लोक में तो उन्होंने कम से कम शब्दों में तीर्थंकर के अनन्त गुणों की ओर संकेत करके, जैन वाडमय की मान्यताओं को स्पष्ट करते हुए गागर में सागर हो भर दिया है। विज्ञ पाठक ज्यों-ज्यों इसमें गहरे पैठता है, विचारों के रत्नों का अखूट भण्डार ही उसके हाथ लगता है। मानतुंग भक्तिरस की भागीरथी को लाने वाले भागीरथ तो हैं ही, पर भाव-पक्ष के साथ-साथ कला-पक्ष में भी वे कभी पीछे नहीं रहे। भक्तामर स्तोत्र के निर्माण के मूल में कवि की जो भावना रही है, उसे उन्होंने कितने मधुर दृष्टांतों के द्वारा व्यक्त किया है, वह दृष्टव्य है। कवि कहता है कि जिस प्रकार मूर्ख कोयल आम्र मंजरी के कारण अपने मीठे बोलों को नहीं रोक पाती, वैसे ही तीर्थकरके प्रति अनन्य निष्ठा और भक्तिभावना से प्रेरित उनका मन भी अभिव्यक्ति के लिए विवश हो जाता है - "यत्कोकिलः किलः किल मधौ मधुरं विरोति, तच्चान चारू कलिका-निकरक-हेतुः । ॥२६ इस मजबूरी के लिए कवि का तर्क तो देखिए, वह कहता है जैसे हिरणी अपनी शक्ति का विचार न करके सिंह का सामना करने को उद्यत हो जाती है "प्रीत्यात्म-वीर्यम विचार्य मृगी मृगेन्द्र, नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम ।"२७ कवि के भक्ति भाव की अभिव्यक्ति की दीवानगी सारी सीमाओं को लांघ चुकी थी, उसे अब इस बात का कोई भय नहीं था कि लोग उस पर हंसेंगे ___ "अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम .........."" वह तो बड़ी बुलन्दगी के साथ कहता है कि मैं बुद्धिहीन होकर भी उस बालक की तरह हूं. जो चन्द्रमा पाने को मचलता हो, तुम्हारी स्तुति हेतु उद्यत हूं "बुद्वया विनापि बिबुधाचित-पाद-पीठ स्तोतुं समुद्यत-मतिविगत-त्रपोहम् ।".......... २९ आगे कवि कहता है कि हे गुणों के सागर, आपके गुणों का वर्णन तो देवताओं के गुरु वृहस्पति भी नहीं कर सकते-- "वक्तुं गुणान् गुण-समुद्र शशांक-कान्तान ...........।"3" इस प्रकार कवि ने भक्तामर स्तोत्र में भक्ति के माध्यम से शांतरस और प्रसाद गुण का सुन्दर निदर्शन तो किया ही है, साथ ही भक्ति के अगाध सागर की लहरों के साथ-साथ उसमें से निसृत होते हुए ज्ञान-विज्ञान के स्तोत्र भी सहज ही देखे जा सकते हैं। खण्ड २१, अंक २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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