Book Title: Tulsi Prajna 1991 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 7
________________ यहाँ हम प्रशस्ति की अन्तिम दो पंक्तियों के मूलपाठ और उनमें अभिप्रेत अर्थ की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया चाहते हैं जो जैन परंपरा के एक महत्त्वपूर्ण तथ्य को उजागर करता है। दोनों पंक्तियों में उत्कीर्ण मूलपाठ इस प्रकार है-- पंक्ति-१६---पटालिके चतरे च वेडरिय गभे थंभो पतिठापयति पानतरीय सत (सहसे हि) मुरिय कालवोछिने च चोयठअंगे सातिकं तिरियं उपादयति खेमराजस बढराजसभिखराजस धमराजस पसंतो सुनंतो अनुभंतो कलानानि । पंक्ति-१७------गुनविसेसकुसलो सवपासंडपूजको सवदेवायतनसंकार कारको अपतिहतचक वाहनिवलो चकधुरगतचको पवतचको राजसि वसुकुलविनिसितो महाविजयो राजा खारवेलसिरि। (चैत्य का चिह्न) । अर्थात पटालिकेचतरे-पिहण्डा बन्दरगाह के तट पर ७५ लाख मुद्राएं खर्च करके वैदूर्य गर्भवाला (मुक्तामणिजड़ा) स्तंभ स्थापित कराता है और मौर्यकाल में उच्छिन्न हुए जिनआगमों के ६४ अंगों की सुरक्षा के लिए सातिक तिरियं-पिधानरूपी शाटिक (पिधानार्थक-तिरस धातु) बनाता है। क्षेमराजा, वर्द्धमानराजा, भिखुराजा, धर्मराजा, जो कल्याण कार्यों को पसंद करता, सुनता और अनुभव करता (जनहित कार्यों को करता, उन्हें पुनः निरीक्षण करता और गुणदोष देख कर पूरे कराता) था, ऐसा विशिष्ट गुणों से युक्त, सब धर्मों का पूजक, सब देवायतनों का संस्कर्ता, विशाल सेना के कारण अप्रतिहत गतिवाला, समर्थ शासन कर्ता, धर्म प्रवर्तन कर्ता (सपवत विजयवकोकूमारी पवते--१४वीं पंक्ति) और राजसी संपदाओं से सुसम्पन्न महाविजयी राजा श्री खारवेल है। ___इन पंक्तियों में आये ‘पटालिक'-को उत्तराध्ययन चूर्णि (पृ० २६१) के अनुसार-'समुदत्तीरे पिहुंडं नाम नगरं' कहा गया है जो डॉ० सिलेवन लेवी के मत में मैसोलस (गोदावरी) और मानदस (महानदी) के बीच का पुलिन (डेल्टा) है। प्लिनी ने इसे पर्थलिस (Parthalis) नाम से उल्लिखित किया है। 'पानतरीय' अथवा 'पनसतरीयसत' तथा 'मुरियकाल' के मध्य सात अक्षर खोदा जाने जितना स्थान रिक्त है इसलिये दोनों पदों को एक साथ नहीं माना जा सकता और 'पनसतरीय सतसहसेहि' के बाद वाक्य-समाप्ति मानी जानी ही उचित है । दूसरे वाक्य----‘मुरियकाल वोछिने च चोयठ अंगे सतिकं तिरियं उपादयति' = मौर्य कालादुछिन्ने च चतुषष्टि अंगे सातिकं तिरियं (Slanting across) उत्पादयति--में राजा खारवेल द्वारा कुमारी पर्वत पर प्रवर्तित धर्मचक्र के अवसर पर मौर्यकाल में उच्छिन्न हुए जिन-आगमों को संरक्षित कराना ही अभिप्रेत हो सकता है। प्रशस्ति का यह महत्त्वपूर्ण उल्लेख होने से बिना संवत्सर-उल्लेख के अनेकों योजना, अनेकों स्तंभ और चैत्यों के निर्माणोल्लेख के साथ अन्त में लिखा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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