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तर्कसंग्रहकार लिखते हैं-'सर्वव्यवहारहेतुर्गुणो बुद्धिर्ज्ञानम् । सारे व्यवहारों का हेतु जो गुण होता है उसे ही बुद्धि या ज्ञान कहते हैं।
उपर्युक्त विवेचन से ज्ञान के उस नित्य स्वरूप का परिचय मिलता है जो त्रैकालिक सत्य का समानाधिकरण है । उसके अतिरिक्त एक अनित्य ज्ञान होता है जिसे वृत्तिज्ञान कहा जाता है । 'ज्ञायते येन तत् ज्ञानम्" यह इसका व्युत्पत्ति करणसाधन है । आत्म मनः संयोग ; मन का इन्द्रिय- के साथ संयोग, और इन्द्रिय का अर्थ के साथ संयोग, होने पर विषयाकाराकारित चित्तवृत्ति में प्रतिबिम्बित जो चिदाभास है वही वृत्तिज्ञान कहा जाता है। यह ज्ञान अनित्य है किन्तु व्यवहारोपयोगी होता है । जगत् के सारे व्यवहार इसी के आधार पर चलते हैं। उपर्युक्त तर्क संग्रह का लक्षण इसी ज्ञान का है । अनेक विप्रतिपत्तियों के होने पर भी ज्ञान की परिभाषा इस रूप में की जाती है"अर्थप्रकाशकत्वं ज्ञानत्वम्" "साक्षात् व्यवहारजनकत्वं ज्ञानत्वम्" अथवा "जडविरोधित्वं ज्ञानत्वम्" अथवा "अज्ञानविरोधित्वं वा ज्ञानत्वम्"। इनमें कोई लक्षण नित्य ज्ञान में संगत होता है तो कोई लक्षण अनित्य ज्ञान में संगत होता है। किन्तु 'अर्थप्रकाशकत्वं ज्ञानत्वम्' यह ज्ञान का लक्षण दोनों प्रकार के ज्ञानों में समन्वित होता है।
प्रस्तुत निबन्ध में जिस ज्ञान के प्रामाण्य के ऊपर विचार करना है, वह अनित्य ज्ञान है । यह दो प्रकार का होता है यथार्थ और अयथार्थ । तद्वान् में तत्प्रकारक ज्ञान यथार्थ ज्ञान है । रजत मे रजतत्व प्रकारक "इदं रजतम्" यह ज्ञान यथार्थ ज्ञान है, किन्तु रजतत्वाभाववती शुक्ति में “इदं रजतम्" यह ज्ञान अयथार्थ या भ्रम कहा जाता है । उत्तरकालिकअधिष्ठानज्ञान से जहां अधिष्ठेय का बाध हो जाय वह तो मिथ्या ज्ञान ही कहा जाता है।
___ यथार्थ ज्ञान को प्रमा भी कहते है। इसके मुख्यतया चार भेद होते हैं प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपमिति और शाब्दी प्रमा। प्रमा का कोई न कोई करण होता है क्योंकि बिना करण के कोई कार्य नही होता। प्रमा का जो करण होता है वही प्रमाण होता है। प्रमाण शब्द में प्रमा और अन इन दो की युति है। उनमें प्रमा का अर्थ है यथार्थज्ञान और अन प्रत्यय का अर्थ है करण । इसलिये कहा जाता हैं कि-प्रमायाः करणम् =प्रमाणम् । प्रमा का जो करण अर्थात् साधकतम कारक है वही प्रमाण है। प्रमाण का स्वरूप
अब प्रश्न होता है कि प्रमाण है क्या जिससे प्रमा होती है ? इन प्रश्न के उत्तर में जैन दर्शन का कहना है कि ज्ञान ही प्रमाण है। आचार्य हेमचन्द्र ने कहा है “सम्यगर्थ निर्णयः प्रमाणम्"। वादिदेवसूरि का कहना है कि--- 'स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणम्'। आचार्य माणिक्य नन्दी 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' में लिखते हैं.-..
"स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्"। इन लक्षणों में शाब्दिक वैभिन्य होने पर भी सभी का स्वारस्य इसी में है कि ज्ञान ही प्रमाण हैं । वह ज्ञान भी अर्थ का यथार्थ निश्चायक होना चाहिये । यथार्थ निश्चायक का अर्थ यथार्थ ज्ञान ही है । इस प्रकार प्रमाण का लक्षण करने
तुलसी प्रज्ञा
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