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करण है वह भी प्रत्यक्ष मूलक ही है। शब्द ज्ञान जो शाब्दी प्रमा का करण है वह भी श्रावण प्रत्यक्ष का विषय होकर ही प्रमाकरण होता है।
इस विवेचन वे स्पष्ट होता कि ज्ञान यद्यपि प्रमा का करण है तथापि वह ज्ञान पहले किसी साधन से उत्पन्न होने के बाद ही प्रमा का करण होता है। इस प्रकार ज्ञान में प्रमात्व और प्रमाकरणत्व ये दोनों बाते संगत होती हैं । विवेचन से यह बात भी स्पष्ट हुई है कि प्रमा और प्रमाणं इन दोनों का प्रयोग यथार्थ ज्ञान के लिये होता है । यद्यपि प्रमा के करण को ही प्रमाण कहने की परम्परा रही है तथापि यथार्थ ज्ञान के लिये प्रमाण शब्द का प्रयोग आधारहीन नहीं है । व्युत्पत्ति-वैचित्र्य के आधार पर प्रमाण शब्द यथार्थ ज्ञान का वाचक हो सकता है। प्र पूर्वक मा धातु से भाव में अङ् प्रत्यय करने से प्रमा शब्द निष्पन्न होता है। इस प्रमा शब्द का जो अर्थ है वही अर्थ प्र पूर्वक मा धातु से भाव में ल्युट् प्रत्यय से निष्पन्न प्रमाण शब्द का भी होता है। 'प्रमितिः प्रमाणम्' । यही अर्थ भाव प्रत्ययान्त प्रमा और प्रमाण शब्द का होता है । इस प्रकार प्रमा और प्रमाण शब्द एकार्थक हो जाते हैं। प्रामाण्यविवेचन
यथार्थ ज्ञान को जब प्रमा शब्द से व्यवहृत किया जाता है तब उसके असाधारण धर्म को प्रमात्व कहा जाता है और जब उसे प्रमाण शब्द से कहा जाता है तब उसके असाधारण धर्म को प्रामाण्य कहा जाता है । इसी प्रकार अयथार्थ ज्ञान के असाधारण धर्म को अप्रमात्व तथा अप्रामाण्य शब्दों से व्यवहृत किया जाता है । यहां प्रश्न होता है कि ज्ञान का जो प्रमात्व या प्रामाण्य है वह कैसे गृहीत होता है ? क्या वही सामग्री ज्ञान का प्रामाण्य भी कराती है जिससे वह ज्ञान पैदा हुआ था, या किसी दूसरी सामग्री के द्वारा उसके प्रामाण्य का निश्चय होता है ? अर्थात् प्रामाण्य का कारण स्व है या पर । यहां 'स्व' शब्द से प्रामाण्य, प्रामाण्य का आश्रय ज्ञान और ज्ञान की कारण सामग्री, इन तीनों का ग्रहण होता है । 'पर' शब्द से इन तीनों से भिन्न वस्तु का ग्रहण होता है। इसी प्रकार अप्रामाण्य के सम्बन्ध में भी ऐसा ही विचार होता है कि अप्रामाण्य का ग्रहण स्वयं होता है अथवा अप्रामाण्य के आश्रयभूत ज्ञान से होता है अथवा अप्रामाण्य की कारण सामग्री से वह गृहीत होता है ?
जिनके मत में प्रामाण्य या अप्रामाण्य की उत्पत्ति 'पर' से होती है वे परत: प्रामाण्यवादी हैं। जिनके मत में प्रामाण्य स्वयं या अपने आश्रय ज्ञान से अथवा ज्ञान की कारण सामग्री से गृहीत होता है वे स्वतः प्रामाण्यवादी हैं। कौन स्वतः प्रामाण्यवादी हैं और कौन परतः प्रामाण्यवादी हैं ? इस सम्बन्ध में यह कारिका प्रसिद्ध हैं
प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः सांख्या: समाश्रिताः । नैयायिकास्ते परतः सौगताश्चरमं स्वतः ॥ प्रथमं परतः प्राहुः प्रामाण्यं वेववादिनः ।
प्रमाणत्वं स्वतः प्राहुः परतश्चाप्रमाणताम् ॥-(सर्वदर्शनसंग्रह) सांख्य दर्शन के अनुसार ज्ञान का प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वतः होते हैं।
तुलसी प्रज्ञा
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