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विविध प्राकृत भाषाओं में-अंसि—स्सिं,-म्हि, मि, और—म्मि प्रत्यय मिलते हैं (पिशल ३६६ व और ४२५) । पिशल महोदय ने जैन शौरसेनी में मिलने वाले 'तम्हि' रूप को (४२५) गलत बताया है। हमारी दृष्टि से यह गलत नहीं होगा क्योंकि 'इमम्हि' रूप व्यवहार सूत्र में और—म्हि वाले प्रयोग कुन्दकुन्द-साहित्य में मिलते हैं ।—म्हि विभक्ति-प्रत्यय मात्र पाली भाषा का ही हो ऐसा एकांत दृष्टि से नहीं कहा जा सकता। कुछ प्रत्यय अमुक काल तक पालि और अर्धमागधी प्राकृत दोनों भाषाओं में समान रूप से प्रचलित रहे होंगे। ऐसा कहना अनुपयुक्त नहीं होगा । अथवा ऐसा भी असंभव नहीं माना जा सकता कि परवर्ती लेहियों ने प्राचीन प्रत्ययों के स्थान पर उस समय में चालू प्रत्ययों को रख दिया हो।
ऊपर दिए गये अनेक विभक्ति प्रत्ययों में से-म्मि प्रत्यय सबसे बाद का मालम होता है जिसकी उत्पत्ति ध्वनि परिवर्तन के सिद्धान्त से स्पसृतः-म्हि में से हुई है और लेखन की असावधानी के कारण स और म के बीच भ्रम (लिपि दोष से 'स' में 'म' का भ्रम) हो जाने से 'मिस' का 'म्मि' या 'सि' का 'मि' में परिवर्तन होना भी अशक्य नहीं कहा जा सकता। अर्धमागधी के प्राचीन अंशों में सि के स्थान पर 'मि' 'म्मि' आने का यह भी एक सबल कारण है। - इस सारे विवेचन से यह फलित होता है कि यदि प्राचीन अर्धमागधी साहित्य की प्रतियों में स. ए. व. के लिए---स्सिं, स्सि, स्मि या म्हि प्रत्यय मिलते हों तो उन्हें गलत मानकर उनके स्थान पर सि और--म्मि का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
इस संदर्भ में प्राकृत भाषा की प्राचीनतम कृति से एक उदाहरण देना उपयुक्त रहेगा-सप्तमी एकवचन का--स्सि प्रत्यय एक पाठान्तर के रूप में आचारांग में मिलता है—लोगस्सिं, सं, खं, जै, प्रतियों के अनुसार (आचारांग १-८-३-२०६ पृ० ७५, म, जै, वि० संस्करण) ।
आचार्य हेमचन्द्र के द्वारा-स्सिं विभक्ति सर्वनाम के लिए दी गयी है और यह उदाहरण नामिक विभक्ति का भी है। हमारे लेहियों अथवा अर्धमागधी भाषा के प्राचीन लक्षणों के बारे में अल्प जानकारी के कारण, संपादकों के हाथ कितनी ही प्राचीन विभक्तियां और प्रत्यय साहित्य में से लुप्त हो जाने की शंका होती है। जैसे आ० श्री हेमचन्द्र ने पंचमी एकवचन के लिए (स्मात् )= म्हा विभक्ति प्रत्यय के साथ कम्हा, जम्हा, तम्हा इत्यादि रूप तो (८-३-६६) दिये हैं परन्तु (स्मिन् )-म्हि विभक्ति का कोई उल्लेख तक नहीं किया है जो साहित्य में अत्रतत्र मिलती है। हो सकता है इसे पाली की विभक्ति समझकर मान्य नहीं रखा हो। जब व्याकरण गंथ में उसे मान्यता नहीं मिली हो तब तो ऐसी विभक्ति का प्रयोग प्राचीन प्रतों में कहीं-कहीं पर मिला भी होगा तो उसका सामान्यत: त्याग ही कर दिया गया होगा ऐसा कहना अनुपयुक्त नहीं होगा।
खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ६१)
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