Book Title: Tulsi Prajna 1991 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 36
________________ अविहंपि य कम्मं अरिभूयं होइ सयल जीवाणं । तं कम्ममरि हंता अरिहंता तेण वुच्चंति ॥ अथवा 'अरहताणं' के स्थान पर 'अरिहंताणं' ऐसा पाठ भी मिलता है। 'कर्मरूप शत्रुओं का हनन करने वाले अरिहंत भगवन्तों को नमस्कार हो।' ऐसा अर्थ वहां समझना चाहिये । (आवश्यक नियुक्ति में) कहा है-"आठ प्रकार का कर्म ही शत्रु रूप है, उन कर्म रूपी शत्रु का नाश करने से अरिहंत कहे जाते हैं।" अन्य पाठान्तर का भी सूरिदेव उल्लेख करते हैं.---'अरुहंताणं' मित्यपि पाठांतरम्, तत्र अरोहद्भ्यः अनुपजायमानेभ्यः, क्षीणकर्म-बीजत्वात्-अथवा 'अरहंताणं' के स्थान पर 'अरुहंताणं' पाठ भी मिलता है। 'जन्म नहीं लेते'---इस पाठ का तात्पर्य है, क्योंकि कर्म रूपी बीज क्षीण हो जाने से भगवान् पुनः जन्म नहीं लेते।' इस प्रकार उपयुक्त व्याख्याएं श्री अभयदेव सूरि जी महाराज ने मात्र 'अरहताणं' पद की हैं, जिसमें तीर्थङ्कर व केवली दोनों को अरहंत कहा जा सके, ऐसी समान व्याख्या भी है । पर पाठांतर में जिन व्याख्याओं को आलेखित किया है, अधिकांश वे ही व्याख्याएं केवली भगवंत के साथ विशेष रूप से लागू होती हैं । कर्मरूपी शत्रुओं का नाश, तथा जन्मजरा-मृत्यु के निवारण हो जाने से अपुनरागमन के अतिरिक्त किसी भी रहस्य का गुप्त न होना, सर्व परि ग्रह का त्याग, राग का क्षय, आसक्ति न होना, वीतरागता से युक्त होना, इन सभी में व्यवहार नय से समानता होने पर भी निश्चय नय से अष्ट महाप्रातिहार्य आदि गुणयुक्त होने से तीर्थङ्करत्व ही अर्हन्त पद के उपयुक्त है । सामान्य केवली में इन गुणों का कोई स्थान नहीं । अस्तु, अब प्रश्न यह उठता है कि जब तीर्थङ्कर को ही अर्हन्त पद के लिए उपयुक्त समझा जाए तो सामान्य केवली को पंच-पदों में से किस पद पर आरूढ़ करके नमस्कार किया जाए ? सिद्ध पद तो केवली पर्याय में अर्थात् तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थान के आरोह क्रम में हो नहीं सकता। अतः णमो सिद्धाणं' के अंतर्गत भी नहीं माना जा सकता। आचार्य तथा उपाध्याय पद भी केवली भगवान् के उपयुक्त नहीं है। शेष रहे पंचम पद णमो लोए सव्व साहूणं' क्या इस पद में नमस्कार किया जा सकेगा? क्योंकि अर्हन्त, आचार्य, उपाध्याय भी साधु पद से विहीन नहीं हैं। अतः सहज ही साधु पद में तो गणना की जानी संभव हो जाती है। इस प्रकार 'अर्हन्त' के अधिकारी मात्र तीर्थङ्कर को ही मानना चाहिये, केवली को नहीं, क्योंकि केवली के अर्हन्त की भांति न तो अतिशय होते हैं और न गुण ही। पंचकल्याणक आदि केवली (सामान्य) के नहीं होते, और न ही उनकी महिमा अर्हन्त की तरह होती है । इस के अतिरिक्त संघ रूपी तीर्थ के प्रस्थापक भी अर्हन्त ही होते हैं। साधु-साध्वी तथा श्रावक-श्राविका, इन चारों को चतुर्विध संघ कहा जाता है, जिसे अर्हन्त तीर्थ रूप में स्वीकार करके स्वयं णमो तित्थस्स' कह कर अपनी योजनगामिनी देशना प्रारम्भ करते हैं। इस संघ की स्थापना अपने अपने शासनकाल में स्वयं तीर्थङ्कर करते हैं। सामान्य केवली का यह सामर्थ्य नहीं। अतः सामान्य केवली को अईन्त कहना उपयुक्त नहीं है। १. मावश्यक नि. गा. ९०४ २. भ. व. १.१ ३. वही ४. विशेषावश्यक भाष्य-७६६, भगवती १.१, ११.११,१६.५,२०.८। नाया-१.१६, जम्बू. प्र. ५,११२ । ८६ तुलसी प्रज्ञा - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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