________________
सोभाचन्द सेवग नै सीखावियो, भीखनजी रा दूसरिया जोड़ी ल्याइज जी रे । दान देई नै राजी करस्यां तो भणी, म्हे कहिवाड़ा जठे ल्याव सुणावज जी रे ॥४६॥ कारी कराई वेद बधाई मांगियां, कहै पंचां ने पूछी पछै बधाई आपस्यूं जी रे । साधू असाधू परख लियां कहै गुरु करो, पछै करे स्यू पूछ त्रिय नां बाप सूं जी रे ॥४७॥ पंचलड़ो जीव गोता खासी इम कही, च्यार आत्मा जीव थे कहो चोलड़ो जी रे। एकलड़ अधिकी म्हारी सदा जाणज्यो, सिद्धत चरचा करियज्यूं वेगातिरोजी रे ॥४८॥ अमरसिंघजीरो तिलोकजी कहै अन्न पुण्ये, हंतो कहुंछू सिद्धतमें लिखी जिसीजी रे।। रत्नजीजती बोल्यो म्हैं ढीलापड़या, तो पिण इम नहीं बोलाथां आ कही किसीजी रे ॥४६॥ हूं तो पात्रा हींगलू सूं रंगू नहीं, जोई जोई ने राता केलू लावियो जी रे । भिक्खु भाख हींगलू हिरदे वस रह्यो, खोड मिटाई हींगलू घलावियो जी रे ॥५०॥ समदृष्टि नै पाप न लागै कै कहै, माथे पोत्यो बांधी मैथुन सेव ही जी रे । करड़ा-करड़ा दिष्टंत नहीं दीजिय, गंभीर रोग फूंजाल्यां जाये नही जी रे ॥५१॥ मांहो मांहे असाध कहै ते दोन सत्य वदै, म्हारै भावे तो दोन असाध छै सही जी रे । इक भागां तूं पांचूंई महाव्रत नहीं रहै, भिक्खु पांच रोटी री कथा कही जी रे ॥५२॥ साध साध री व्यावच कर इण विधे, समाइ पोषा में श्रावक श्रावक री करै जी रे।। साधू अणसणमें वडसाधूरा पग वंदै, तिम श्रावक अणसणमें ज्येष्ठपावां क्यूं न पड़ेजी रे ॥
दया रां दृष्टांत पासी न काढे थांरां श्रावक पापिया, कोइक काढे कोइ न काढे कुण सिरे जी रे। थून थांरा गुरु जाता पंथ में, किण ही पासी खाधी काढी कुण धरे जी रे॥५४॥ बकरा नै वचायां ऊ कुंपल खावसी, तेहनों पाप सगलोई तोने लागसी जी रे । दया पलावी पोसा करावो तेहने, आगला दिन रो धर्म किम आवसी जी रे ॥५॥ बकरा नै वचाया मोनें स्यूं थयो, भिक्खु दोय आंगुलियां ऊंची करी जी रे । एक तो ऋण उतारै बीजो ऋण करै, मायत किसा पुत्र ने वरजै लड़ी जी रे ॥५६॥ टको देई नै साप छोड़ायां स्यूं थयो, टको देई नै घणा ने बंधावियां जी रे । छोड़ायो ते साप कहो जी किहां धस्यो, विल में पेसी उंदरा मरावियां जी रे ॥५७।। उंदरा तो बिल में कोई नहीं हुंता, किणहीक गोली छोड़ी काग उडी गयो जी रे। वायस वंच्यो ते तो तेहनो आउ घणो, गोली वावण वालो तो हिंसक थयो जी रे ॥८॥ जीव वचावो वचावो करी रह्या, वचावणा रह्या ते छोडो मारणा जी रे । चोरयांकरकर चोक्यां सांगै रातरी, चोरयाइ छोड लेसां थाराउवारणा वारणाजी रे ॥५६॥ किवांड खोल वहिरायां तो वहिरै नही, पोतेइ जड़े उघाड़े अंधारी रात में जी रे । भंगी री भीटी रोटी तो खावै नहीं, कीधी खावै त्यां सरीखी न्यात में जी रे ॥६॥ संसारी उपगार दुजो मोख रो, सर्प खाधो झाड़ो देइ बचावियो जी रे । नारी बोली नाह दियो भा डीकरो, संतां सागारी संथारो उचरावियो जी रे ॥६॥
खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ६१)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org