Book Title: Tulsi Prajna 1991 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 55
________________ अर्थ स्पष्ट करने हेतु मुनिजी ने जो वाक्यांश और वाक्य प्रयुक्त किए हैं, वे बहुत सार्थक और पर्याप्त हैं, जैसे "पूर्वगत - पूर्वगर्भित ज्ञान से सम्बद्ध ( वाक्यांश ) " " पूरक - बाहर के पवन को खींचकर उसे अपान द्वार पर्यन्त कोष्ठ में भर लेना पूरक प्राणायाम है । ( वाक्य ) " यद्यपि कोश में शब्द का अर्थ संक्षिप्त और स्पष्ट देना ही उपयुक्त रहता है परंतु पारिभाषिक शब्द की स्पष्टता के लिए कभी- कभी व्याख्या भी करनी पड़ती है। मुनिजी ने कुछ शब्दों के प्रसंग में यह शैली भी अपनाई है, जैसे—धर्मबीज, धर्ममेघ, प्रशम आदि शब्द द्रष्टव्य हैं । उनकी व्याख्याओं में भी नपे-तुले शब्द रहते हैं । भरती के शब्द और वाक्य कहीं नहीं हैं। एक कोशकार की यह सबसे बड़ी विशेषता मानी गई है जिसका उपलक्षण प्रस्तुत कोश में प्रतिपद मिलता है; किन्तु कोशकार ने 'योग' जैसे प्रमुख शब्द की प्रविष्टि न करके हमें अचंभे में डाल दिया । आरंभ में संक्षिप्त नामों की सूची ( Abbreviations) का अभाव भी खटकता है । तो भी, कोश का मुद्रण, साज-सज्जा, बाह्य और आंतरिक कलेवर स्पृहणीय है । ऐसे महत्वपूर्ण ग्रंथ का प्रूफ शोधन निश्चित ही बड़े श्रम एवं निष्ठा से हुआ होगा तभी इतने शुद्ध रूप में यह छपा है । ऐसे श्लाघनीय शास्त्रीय ग्रन्थ से राष्ट्रभाषा का गौरव मुनिजी निरन्तर ऐसी कृतियों का प्रणयन करते रहें, इस सदाकांक्षा के प्रस्तुत कोश का हार्दिक स्वागत करता हूं । -डॉ० आनन्द मंगल वाजपेयी जैन विश्व भारती, लाडनूं [राज ०] आगम - साहित्य धारकों से एक निवेदन बढ़ा है। साथ में अनुभव हुआ है कि संस्था द्वारा प्रकाशित आगम- साहित्य के अध्ययन के प्रति श्रावक - समाज की रुचि अपेक्षाकृत कम है या फिर यह विषय सहज ग्राह्य नहीं है । ऐसी स्थिति में पाठकों के लिए रुचिकर योग, कथा एवं जीवन विज्ञान साहित्य उपलब्ध कराने की एक योजना प्रसारित की गई है। इसके अन्तर्गत आपके पास जो आगम-साहित्य हैं उनके बदले में आप मूल्यानुसार योग साहित्य या अन्य साहित्य संस्था से प्राप्त कर सकते हैं । खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ε१ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only श्रीचंद बैंगानी मंत्री १०५ www.jainelibrary.org

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