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TULSI-PRAJNĀ, July-Sept., 1991
प्रिय डाक्टर सोलंकी !
प्रज्ञा का नया अंक मिल गया है । धन्यवाद । अब मन में कोई उत्साह शेष नहीं रह गया है, जिससे 'वीर निर्वाण संवत्' पर निर्बन्ध लेख लिख सकूँ । अलबत्ता मैं अपनी दो रचनाओं में इस 'चर्चा' का विश्लेषणात्मक उल्लेख करूंगा।
प्रज्ञा के वर्तमान अंक में छपा आपका लेख 'हरिभद्र सूरि' अच्छा लगा--मैं आपके संदर्भ-संचय को-प्रमाण के तौर पर उद्धृत कर रहा हूं।
--चन्द्रकांत वाली एन. डी/२३:विशाखां इन्क्लेव
पीतमपुरा, देहली-३४
आदरणीय डॉ० सोलंकीजी
जय जिनेन्द्र !
आप के द्वारा प्रेषित 'तुलसी प्रजा' का अप्रेल-जून, १९६१ का अंक आज ही प्राप्त हुआ है। पिछले कुछ वर्षों से जैन-समाज में दर्शन तथा प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में शोध-कार्यों को प्रोत्साहन देने हेतु कुछ अच्छे स्तर की पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है, किन्तु इतिहास और पुरातत्त्व की दृष्टि से नए तथ्यों पर विचार प्रस्तुत करनेवाली अच्छे स्तर की पत्रिका की कमी खटक रही थी। तुलसी प्रज्ञा की नवीन अंक में प्रस्तुत सामग्री से आप ने इसकी पूर्ति का अच्छा प्रयास किया है । बधाई स्वीकार करें।
मैंने यद्यपि सरसरी दृष्टि से ही अंक देखा है, तथापि तीन लेखों ने विशेष ध्यानाकर्षण किया है। पहला-वीर निर्वाण काल (लेखक-श्री उपेन्द्रनाथ राय), दूसरा-सम्राट् समुद्रगुप्त और उसका राजवंश (ले० डॉ० देवसहाय) तथा आपका लिखा संपादकीय-वीर निर्वाण संवत् । भगवान महावीर के निर्वाण-काल को लेकर प्रारंभ से ही विद्वानों में विचार भेद रहा है । प्रख्यात पुरातत्त्व वेत्ता डॉ० स्वराजप्रकाश गुप्ता से चर्चा हुई तो ज्ञात हुआ कि उनका भी दृढ़ विश्वास है कि महावीर २५०० वर्ष से कई शताब्दी पूर्व हुए थे।-----इसी कालगणना पर शोध की दृष्टि से आप का लेख 'आचार्य हरिभद्र सूरि का काल-संशोधन' नवीन तथ्यों की ओर ध्यान आकर्षित करता है । पुनः बधाई।
हृदयराज जैन महासचिव, ऋषभदेव प्रतिष्ठान
दिल्ली-६
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