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गारंटी/मैं नी दे सकू/... ... ... /पीपे मांय आटो/अर चूल्हे माय बासते/होणो जरूरी नी।"
इसी प्रकार "रोटी री सुगन्ध", "बबूती अर राख", "पीपटी", "दिन अर रात", "कलम", "कल्प बिरछ खेजड़ी", "मिनखपणो” आदि कविताएं सजीव चित्रण, दार्शनिक विवेचन तथा रचनात्मक चिन्तन के लिए बेजोड़ हैं। वे कहते हैं-"कलम/अब किसी राजा और मंत्री रो/इतिहास नी लिख'र/दोपारां री तपती मांय/चीणी अर किरासणी तेल री/दुकानां माथै लम्बी लाइन मांय/खड़ या लोग लुगाई/अर टाबरां ने/होती पीड़ हूंस/अर झाल माथै लिखणो चावै/म्हारी कलम ।"
संपादन में कतिपय त्रुटियां खटकती हैं। जैसे पृ० १८ पर (खेजड़ी) तथा पृ० ७७ पर (कल्पविरछ खेजड़ी) दोनों जगह वही एक ही कविता है। अनुक्रमणिका में "मेह तूं पेल्यां" कविता का शीर्षक पृ० २४ पर "बिरखा सूं पेल्यां" हो गया है। ४८ वर्षीय कवि श्याम महर्षि को अभी बहुत अनुभव लेने हैं—आशा है वे साहित्य व समाज को कुछ न कुछ देते रहेंगे।
-रामस्वरूप सोनी ५. चमगंगो (राजस्थानी कवितावां) रचनाकार-रवि पुरोहित । संस्करण१६६१ । मूल्य-५०/- प्रकाशक-राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति, श्रीडूंगरगढ़ (राज.)
''चमगूगो" रवि पुरोहित की राजस्थानी कविताओं का संग्रह है। उसमें कवि के शब्दों में ६ चितराम, १४ आंतरा, ७ दीठ और १४ टुणकला है।
'बाल विकास योजना' में कार्यरत २३ वर्षीय वाणिज्य-स्नातक की ये कविताएं प्रथम प्रयास होते हुए भी 'चमगूगो की बिरादरी' में नहीं लगती, जैसा किसी मदन सैनी ने कहा है। काल रा पौरादार, रूखड़े री सीख, आलसी मानखो, परिभासा और बैम रो बतूलियो-कविताओं में कविमन तरंगें चमगूंगी नहीं हैं। अंतस रो अमूझो' में उसका प्रश्न-'काई थारी ई/आ ई गत है/मला मिनख ?' केवल प्रश्न नहीं है। यह यक्ष प्रश्न है जिसे कवि हृदय ही पूछ और बूझ सकता है। कवि के 'टुणकला' तो जनअभिरुचि से भरे पूरे हैं। उनमें मनोरंजन के साथ-साथ सीख भी है, किन्तु 'काल रा जाल' में कवि बचपन से घिर गया लगता है। उद्देश्य, आगरी सूझ, कोठे री संस्कृति जैसी कविताएं भी अभी परिमार्जन की अपेक्षा रखती हैं। फिर भी कवि ने पाठकों को निराश नही किया और उसके इस संग्रह में भविष्य के लिए सुन्दर सपने संजोए हैं।
__गेट-अप, साज-सज्जा और प्रस्तुति अच्छी है । कीमत यदि तीस रुपए होती तो पाठकों के लिए ज्यादा अनुकूल होती।
-परमेश्वर सोलंकी ६. जन योग पारिभाषिक शब्दकोश : संपादक-मुनि राकेश कुमार । प्रथम संस्करण जैन विश्व भारती, लाडनूं । मूल्य-रु० ३०/-, पृष्ठ-२३३ ।
यह अपने ढंग का प्रथम कोश है, जिसमें जैन योग की पारिभाषिक शब्दावली संकलित है । भारतीय योग की परंपरा बहुत प्राचीन है। उसका प्रथम व्यवस्थित रूप खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ६१)
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