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सिद्धांत में बातां जे कुण देखी अछ, कुल गुरु पोथा वांचै ये किम सरधिया जी रे । साधू सावद्य त्याग्यो असाता क्या हुदै, सिर पर पत्थर फेंकी ने सोगन किया जी रे ॥१०८।। घर को धणी अनुक्रमें लूण खेत , चोर उपरवाड़ा कर लाय लगावही जी रे। खावा नै वणाई ए सर्व नीलोतरी, नाहर नो भख तोने वणायो छ सही जी रे ॥१०६।। भिक्खनजी नै कटारी सु धूस सू, तेहनो सील भागो तें प्रगट कियो जी रे । थांरी सम्यक्त्व पाछी उरी ल्यो इम कह्यां, किम मिटै गाडा में जे सांचो दियो जी रे ॥११०॥ कयरे मग्ग मक्खाया नो अर्थ पूछियो, व्याकर्णी किसू जाणे भाषा भागधी जी रे । कयर मूंग मत खाई जै इण में यूं कह्यो, मकरा करतो बोले कुबुधी जी रे ॥१११॥ राते बखाण देतां रात आई घणी, दुख री रात घणी लखावै छ सही जी रे । नींद लेवे ते पूछ्यां सांच बोले नहीं, आसाजी जीवो छो के जीवो नहीं जी रे ॥११२॥ वैराग्य चाडै पोते वैरागी थयो, कसूबो गलीयां पछे रंग चढावही जी रे। सालिभद्र नो वखाण सुस्वादो घणो, बात न प्यारी वतवो प्यारो छ सही जी रे ॥११३॥ इण बात रो तार काढो किण ही कह्यो, भिक्खु भाखै डांडा तुझ सूझै नहीं जी रे । भिक्खनजी तो तोने कहिता सूबड़ी, जा रे पेजाऱ्या उवां तो दीठी ज्यूं कही जी रे ॥११४॥ ताकड़ी रे तीन बेज तिण रे बीचलो, सुध न हुवां अंतरकाणी ताकड़ी जी रे । नगजीस्वामीरो तेज घणो किणही कह्यो, भूसतीकुतीनें फैंक ने कीधी पाधरीजी रे ।।११।। नेसिंधजी रो जमाई न समझ भोलियो, सांच झूठरी समझ उण ने नहीं पड़े जी रे । दादूपंथी कहै थे कहो थारा श्रावका ने, ज्यूं ए मोन जीमाड़ी तृप्त करै जी रे ॥११६।। श्रद्धा आचार की ढाला सुण कूलै घणा, न्याय निरणो छाण न करै तेहनी जी रे । झालर बाज्यां गंडक मिल भूसै घणा ए, यूं न जाणे ए झालर बाजै केहनी जी रे ॥११७।। भिक्खनजी थे जावो जिण वसती मर्श, धसको पड़े पाखंडी धूजै घणा जी रे । गारडू आव्यां डाकण डरै तेहनां, सगा संबंधी परियण धूजे तेह तणा जी रे ॥११८।। बेलो धार्यो लापसी री मन तेवड़ी, पारणा रे दिन तेहिज घर धारी लियो जी रे। . भिक्खु भाख बेलो स्यां काजे कियो, सांच बोलावी बीज दिन इम बंध कियो जी रे ॥११६।। गृहस्थ खूचणो काढ्यां दंड तेला तणो, भारीमाल ने भिखुजी कही इसी जी रे । झूठो काढ्यां आगला कर्म उदै हुवा, इस उपयोग बधाई कीधा महाऋषि जी रे ॥१२०॥ आपरी बुध अपार राज-वरगीयां, समझावी नै सांचे मार्ग आणिय जी रे । खांड नो खेरो कीड़ी चाखै हाथियां, बड़ पीपल ना डालसूंडै ताणियै जी रे ॥१२१।। विविध दिष्टंत विविध भिक्खु वायका, किंचित् किंचित् केइक जोड्या छाण नै जी रे। संवत् उगणीस इकोसा री भाद्रवी, सुध इग्यारस इधिको उज्जम आण नै जी रे ॥१२२॥ अधिको ओछो विरुध बच वदियो हुवे, मिच्छामि दुक्कडं होइजो म्हारे सर्वथा जी रे । दिष्टांत दे दे भिक्खु धर्म दिपावीयो, सांच जाणीज्यो कोइ म जाणीज्यो वृथा जी रे ॥१२३॥ जय आचार्य जोधाणे विराजतां, मुज दीख्या गुरु लाडणू में राजता जी रे । जुग बंधव नी जुगती जोड़ी मिल रही, च्यारूइ तीर्थ सखरी सेवा साजता जी रे ॥१२४॥ खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ६१)
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