Book Title: Tulsi Prajna 1991 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 29
________________ (१) गणिप-जिसे गिन सकते थे, जैसे सुपारी आदि (२) धरिम-जिसे तौल सकते थे, जैसे शर्करा (३) मेय-जिसे नापा जा सकता था, जैसे घी (४) परिच्छेद्य-जिसे देखकर जांचा जा सकता था, जैसे कपड़े, जवाहरात __ आदि । काफिले के साथ डोली, घोड़े, भैसे, खच्चर, हाथी और बैल होते थे, जिन पर अशक्त, रुग्ण और बालक बैठ सकते थे। यात्रा में प्रायः काफिलों को अचानक आई विपत्तियों का सामना करने के लिये तैयार रहना पड़ता था। इन आकस्मिक विपत्तियों में-घनघोर वर्षा, वाढ़, दस्यु, राज्य-विप्लव आदि होती थीं। रास्ते की विपत्तियों से बचने के लिये छोटे-छोटे सार्थ बड़े सार्थों के साथ मिलकर चलते थे। ऐसे सार्थ एक दिन में उतनी ही मंजिल पार करते थे---जितनी बाल-वृद्ध आसानी से तय कर सकते थे । बृ०क०सू० का भाष्यकार कहता है (३०७६), कि ---एक अच्छा सार्थ मुख्य राजपथ पर चलता हुआ धीमी गति से आगे बढ़ता था। रास्ते में भोजन के समय वह ठहरता जाता था और मंजिल पर पड़ाव डालता था। वह उसी मार्ग को पकड़ता था, जो गांवों तथा चरागाहों से होकर गुजरता था। उसका पड़ाव ऐसे स्थान पर डाला जाता, जहां साधुओं, भिक्षुओं को आसानी से भिक्षा मिल सके। आवश्यकचूणि (पृ० १०८-११५) ग्रंथ साधुओं-श्रमणों की यात्राओं में आने वाले कष्टों की भी सूचना देता है। यात्रायें बहुधा सुखकर नहीं होती थीं। कभी जब श्रमण भिक्षाटन पर चले जाते तो कारवां आगे बढ़ जाता था। परिणामस्वरूप साधु भटक जाते । एक ऐसे ही वाकया का उदाहरण देता हुआ चूणिकार लिखता है कि कारवां से भटके हुए साधु राजा की गाड़ियों के पड़ाव पर पहुंच गये, जहां उन्हें भोजन मिला और सही रास्ते की जानकारी भी । आव० चूणि में इस बात का उल्लेख (पृ० ११५) है कि क्षितिप्रतिष्ठ और वसन्तपुर के बीच चल रहे एक कारवां के मुखिया ने इस बात की मुनादी करा दी कि उसके साथ यात्रा करने वालों को भोजन, वस्त्र, बर्तन और दवाइयां निःशुल्क मिलेंगी। यात्राओं में साधुओं द्वारा विपरीत या कि अनुकूल परिस्थितियों में अपना प्रबन्ध करना संभव था, पर साध्वियों को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता था। बृ० क०सू०भा० (४.२) के एक सूत्र में कहा गया है कि साध्वी आगमनगृह में, छाये अथवा बेपर्द घर में, चबूतरे पर, पेड़ के नीचे अथवा खुले में अपना डेरा नहीं डाल सकती थीं। आगमनगृह में सब प्रकार के यात्री टिक सकते थे, मुसाफिरों के लिये ग्रामसभ्य, प्रपा (बाबड़ी) और मन्दिरों में ठहरने की व्यवस्था रहती थी। साध्वियां यहां इसलिये नहीं ठहर सकती थीं कि पेशाब, पाखाना जाने पर लोग उन्हें बेशर्म कहकर हंसते थे, गृहस्थों के सामने साध्वियां अपना चिन्तन निश्चित नहीं कर पाती थीं। इन आगमनगृहों में प्रायः बदमाशों से घिरी बदचलन औरतें और वेश्यायें होती थीं। वे यहां नियमानुसार युवापुरुषों से बातचीत नहीं कर सकती थीं। साध्वियां प्राकारावृत मन्दिर में ठहर सकती थीं। मन्दिर में स्थान न मिलने पर वे गांव के मुखिया (ग्राम-महत्तर) के यहां ठहर खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ६१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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