Book Title: Tulsi Prajna 1991 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 27
________________ शाश्वत यायावरी जैन श्रमणों को * मांगीलाल मिश्र प्राचीन भारत में आजकल जैसे संचार-साधन न थे, फलतः व्यापार तथा अन्य व्यवसायों के लिये व्यापारी को स्वयं ही जाना पड़ता था। जोखिम भरे यात्राप्रसंग पथिकों के समूह के रूप में किये जाते थे । इसीलिये हेमचन्द्राचार्य कहते हैं 'संघसाथ तु देहिनाम्' – अभिधान चितामणि: ( सामान्य कांड -- १४१२ ) इन्हीं पथिकों - साथ में जैनश्रमण भी सहभागी हुआ करते थे । जैन साहित्य में एक ग्रंथ है - बृहत्कल्पसूत्र, जो स्वयं में काफी महत्त्वपूर्ण है । इसमें व्यावसायिक विशिष्ट परिभाषायें हैं, जो अन्य साहित्य ग्रंथों में नहीं मिलतीं । जैसे जलपट्टन समुद्री बन्दरगाह होता था, जहां विदेशी माल उतरता था और देशी माल का लदान होता था। इसके विपरीत स्थलपट्टन वे कहलाते, जहां बैलगाड़ियों से माल उतरता था । द्रोणमुख वे बाजार होते थे, जहां जल और थल दोनों से माल उतारा जाता था । प्राचीन भारत के ताम्रलिप्ति और भरुक छ द्रोणमुख बाजार थे । शाकल, आजकल का सियालकोट, एक ऐसा बाजार था, जहां चारों ओर से उतरते माल की गांठें खोली जाती थीं और इसीलिये वह पुटभेदन था । आचारांगसूत्र-- उसी शृंखला का दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, जो इस विषय में अद्भुत जानकारी देता है । वर्षा में जैन श्रमणों को यात्रा की मनाही है । इसलिए चातुर्मास में जैन - साधु ऐसी जगह ठहरते थे, जहां उन्हें सुविधा से भिक्षा मिल सके । श्रमणगण जंगलों से बचते तथा नदी पड़ने पर वे नाव द्वारा उसे पार करते थे । जैन साहित्य में नाव के माथा (पुरओ), गलही ( मग्गओ) तथा मध्य का उल्लेख है, नाविकों की भाषा के भी उदाहरण मिलते हैं। यथा नाव आगे खींचो - संचारऐसि नाव पीछे खींचो उक्कासितये नाव ढकेलो -- आकसित्तये । इत्यादि पतवार, बांस तथा दूसरे उपादानों द्वारा नाव चलाने का तथा आवश्यकता पड़ने पर नाव के छेद शरीर के किसी भाग, तसले, कपड़े, मिट्टी अथवा कमल के पत्तों से बन्द किये जाने का भी उल्लेख मिलता है । ( आचारांगसूत्र, २, ३, १,१०-२० ) जैन श्रमणों ने लिखा है कि प्राचीन भारत में राजमार्गों पर दस्युओं का बड़ा * डॉ० मोतीचन्द्र के "सार्थवाह" (प्राचीन भारत की अध्याय नौ पर आधारित सूचनाएं - संपादक खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ६१ ) Jain Education International पथ पद्धति) सन् १९५३ के For Private & Personal Use Only ७७ www.jainelibrary.org

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