Book Title: Tulsi Prajna 1991 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 23
________________ म्हि और -स्सिं सप्तमी एकवचन की प्राचीन विभक्तियां [ डॉ० के० आर० चन्द्र अर्द्धमागधी भाषा : पिशल (४२८) महोदय ने उत्तराध्ययन- १५-२ (४५४ ) और प्रज्ञापना सूत्र (६३७) से किम् का ( सप्तमी एकवचन का) रूप 'कम्हि' उद्धृत किया है जो किसी किसी प्रकार अर्धमागधी आगम में बच गया है । यही विभक्ति-प्रत्यय, व्यवहारसूत्र में भी मिलती हैं — इमम्हि ( ७ - २२, २३) । कुन्दकुन्दाचार्य के प्रवचनसार में भी यही विभक्ति - प्रत्यय नामिक शब्दों में मिलती है । चरियम्हि १ ७६, दवियम्हि २-६२, जिणमदम्हि ३-११, विकधम्हि उवधिम्हि ३ - १५, चेट्ठम्हि ३ १६ । इसी तरह इस ग्रन्थ में यह प्रत्यय स्त्रीलिंगी शब्दों में भी प्रयुक्त हुआ है ।' समाला ( धर्मदासगणि) में कहिं, (गाथा नं ० ७६) डागम ( पुस्तक, १३, पृ. २६७ ) में भी ऐसे प्रयोग हैं— एक्कम्हि मिलता है । षट्खंकहि, एगजीवहि । यही - हि विभक्ति पालि भाषा में नाम और सर्वनाम दोनों तरह के शब्दों में प्रयुक्त हुई है; परन्तु प्राकृत साहित्य में उसका इतना प्रचलन नहीं मिलता है जितना पालि साहित्य में । प्राकृत व्याकरणकार वररुचि और हेमचन्द्र दोनों ने सप्तमी एकवचन के लिए- 'हि' प्रत्यय का उल्लेख नहीं किया; फिर भी प्राकृत भाषा में कहीं न कहीं पर- 'म्ह' वाले रूप मिल रहे हैं --- जो किसी न किसी प्रकार लोकभाषा में प्रचलन के कारण बच पाये हैं । आचारांग में तो तृतीया बहुवचन की विभक्ति - भि (थोभि १२-४-८४-म-जै. वि. संस्करण ) भी बच गयी है । शिलालेखों में यही म्हि विभक्ति इस प्रकार मिल रही है - जैसे, अशोक के शिलालेखों में:-- नाम शब्द --- अथम्हि (गि० ४,१०) सर्वनाम - तम्हि इमम्हि, अम्हि, एकतर म्ह (गि०६-८, ४-१०, ६- २, १३ - ५ ) ये सभी शब्द गिरनार के लेखों में मिलते हैं । यही विभक्ति द्वितीय शताब्दी ई० पू० में कार्ले के लेख में 'जबुदीप म्हि', प्रथम शताब्दी ई० पू० में बुन्देलखण्ड के भरहुत के लेख में 'तीरम्हि' रेंवाराज्य की शताब्दी के गुफा लेख में 'करयंत म्हि द्वितीय शताब्दी में दक्षिण के लेख में 'महाचेतियम्हि' और तीसरी शताब्दी में एलूरा के मिलती है । अर्थात् अशोक कालीन पश्चिम की यह विभक्ति मध्य भारत और दक्षिण सीलहरा के प्रथम के नागार्जुनी - कोण्ड ताम्रपत्र में 'पदेस म्ह' में १. पिशल ( ३६६ अ ) की दृष्टि में प्रवचनसार के ये रूप गलत हैं किन्तु डॉ० आ० ने० उपाध्ये ने इन्हें अपनाया है । खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ε१) Jain Education International For Private & Personal Use Only ७.३ www.jainelibrary.org

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