Book Title: Tulsi Prajna 1991 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 9
________________ ज्ञानप्रामाण्यविवेचन - विश्वनाथमिश्रः लेखक का अभिमत है कि 'ज्ञान प्रामाण्य' अनित्य ज्ञान के लिए होता है और वह यथार्थ और अयथार्थ-दो प्रकार का होता है। यथार्थ को प्रमा शब्द से प्रमात्व और प्रमाण शब्द से प्रामाण्य कहा जाता है। इसी प्रकार अयथार्थ को अप्रमात्व और अप्रामाण्य कहते हैं। उसके विचार में अनित्य ज्ञान से संबंधित गुण से प्रामाण्य और दोष से अप्रामाण्य होता है। ____ अपनी इस धारणा की मान्यता के लिए लेखक ने बहुविध विवेचन किया है। इससे पूर्व (तुलसी प्रज्ञा १६.१ में) साध्वी योगक्षेम प्रभा ने प्रामाण्य को गंगेश के सिद्धान्त के अनुसार प्रमाकरत्व (प्रमात्व)-प्रमा की प्राप्ति कर्ता साधन का गुण और स्वयं प्रमा-प्रामाण्य होने से ही प्रमा (अभाव में अप्रमा) सिद्ध किया है। वास्तव में भारतीय दार्शनिक 'प्रामाण्य' के नियामक तत्त्वों के संबंध में एकमत नहीं हैं। जैन मत में प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति परतः होती है लेकिन ज्ञप्ति स्वतः और परतः दोनों तरह से होती है। 'प्रमाण परीक्षा' के अनुसार प्रामाण्य का निश्चय अभ्यास होने पर स्वतः और अनभ्यास दशा में परतः होता है । आशा है, यह चर्चा आगे बढ़ेगी। संपादक] 'ज्ञान' और 'प्रमाण' भारतीय दार्शनिक वाङमय में अत्यन्त प्रसिद्ध शब्द हैं । ज्ञान अखण्डबोध नित्य और सर्वावभासक, होता हैं । उसकी स्फुरणा पदे पदे दृष्टिगोचर होती है । सद्यो जात शिशु विना किसी प्रशिक्षण के मातृस्तन्य का पान करता है। उसे यह बोध है कि "इदं दुग्धपानं, मदिष्टसाधनम्" बुभुक्षोपशामकत्वात्, पूर्वानुभूतदुग्धपानवत् । इस प्रकार हिताहित-प्राप्तिपरिहार का ज्ञान पशु पक्षी को भी है । हरी दूर्वा लेकर-पुचकारते हुए मनुष्य के पास गौ आदि पशु दौड़कर चले आते हैं, किन्तु दण्डोद्यतकरमनुष्य को देखकर वे पलायन कर जाते हैं। इससे अखण्डज्ञान स्फुरणा की व्यापकता स्पष्ट होती है। जिस प्रकार अनन्तसत्ता का सदंश, अखण्ड चित् का चिदंश इस जगद् में परिव्याप्त है उसी प्रकार अखण्ड और नित्यबोध का बोधांश भी जगद् में व्याप्त है । यह बोधांश प्राणिमात्र को सहज उपलब्ध है। यह नित्य ज्ञान है । इसकी व्युत्पत्ति भावार्थक प्रत्यय से होती है-"ज्ञप्ति निम्"। बोध ही ज्ञान है । यही जागतिक निखिल व्यवहार का प्रयोजक है। इसलिये ज्ञान की परिभाषा करते हुए खण्ड १७, अंक २ (जुलाई-सितम्बर, ६१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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