Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 5
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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नदी के प्रवाह में पड़ा मनुष्य द्वीप को प्राप्त कर जैसे शान्त हो जाता है उसी प्रकार आपके पास आकर शान्त हो गया हूं । हे राजन्, आपका सान्निध्य पाकर मैं तो रक्षित हो गया हूं; किन्तु उन निरीह पशुओं की यज्ञ कामी उन नर पशुओं के हाथों से रक्षा कीजिए ।' ( श्लोक ३७४-३७६) नारद द्वारा यह सुनकर स्वनेत्रों से सब कुछ देखने के लिए रावण विमान से उतरा और यज्ञ मण्डप की ओर अग्रसर हुआ । मरुत राजा ने रावण को पैर धोकर सिंहासन पर बैठाया और उसकी पूजा की । तब रावण क्रुद्ध स्वर में बोला, 'तुम नरक के अभिमुखी होकर ऐसा यज्ञ क्यों कर रहे हो? त्रिलोक के हितकारी सर्वज्ञ पुरुषों ने अहिंसा को धर्म कहा है तब पशु हिंसात्मक यज्ञ में धर्म कैसे हो सकता है ? यज्ञ से तो लोक और परलोक दोनों ही विनष्ट होते हैं । उभयलोकविनष्टकारी ऐसा यज्ञ मत करो । यदि करोगे तो इहलोक में मेरे कारागार में निवास करना पड़ेगा और परलोक में नरक में जाना पड़ेगा ।' मरुत् राजा ने तत्क्षण यज्ञ बन्द कर दिया कारण समस्त जगत् जिससे भयभीत हो उसकी आज्ञा का उल्लंघन भला कौन कर सकता है ? तब रावण ने नारद से पूछा, 'इस पशु वधात्मक यज्ञ का आरम्भ इस पर नारद ने जवाब दिया
किस प्रकार हुआ ?'
( श्लोक ३७७ - ३८२ )
वहाँ मुनिसुव्रत
'चेदि देश में शुक्तिमती नामक एक प्रसिद्ध नगरी है । प्रिय सखी की भाँति शुक्तिमती नदी ने उसे वेष्टित कर रखा है । उस नगरी में बहुत से उत्तम आचरणशील राजा हुए हैं। स्वामी के तीर्थ में अभिचन्द्र नामक सर्व विषयों में था । उसके वसु नामक एक पुत्र हुआ । वह बहुत बुद्धिमान एवं सत्यवक्ता था । बाल्यकाल में मैं वसु और गुरुपुत्र पर्वत एक साथ क्षीरकदम्ब नामक गुरु से अध्ययन करते थे । एक रात्रि विद्याभ्यास
श्रेष्ठ एक राजा
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पश्चात् जब हम तीनों क्लान्त होकर घर की छत पर सोए हुए थे तब दो चारण मुनियों को आकाश पथ से इस प्रकार कहते हुए जाते देखा कि इन तीनों में एक स्वर्ग जाएगा और दो नरक जाएँगे ।' यह सुनकर गुरुजी दुःखी हुए और मन ही मन सोचने लगे मेरे जैसे गुरु के रहते हुए भी मेरे दोनों शिष्य नरक जाएँगे ? गुरुजी के मन में यह भी जानने की इच्छा हुई कि इनमें कौन स्वर्ग