Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 5
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 274
________________ [265 नीचे प्रतिमा धारण कर स्थित हो गए । घाती कर्मों के क्षय हो जाने से अगहन शुक्ला इग्यारस को अश्विनी नक्षत्र का योग आने पर प्रभु को उत्कृष्ट केवलज्ञान प्राप्त हुआ । साथ-साथ देवों ने ८० धनुष विराट् अशोक वृक्ष समन्वित समवसरण का निर्माण किया । भगवान् उस अशोक वृक्ष को परिक्रमा देकर तीर्थ को नमस्कार कर पूर्वाभिमुखी होकर पूर्व दिशा में रखे सिहासन पर बैठ गए । व्यन्तर देवों ने तुरन्त प्रभु के तीन प्रतिरूप बनाकर अन्य तीनों दिशाओं में रखे सिंहासन पर स्थापित किए। चतुर्विध संघ भी यथास्थान अवस्थित हो गया । सौधर्मेन्द्र ने तब भगवान् को प्रणाम कर यह स्तुति की— ( श्लोक ५१-५६ ) 'आपके पास केवलज्ञान रूपी तीसरा नेत्र है इसलिए हे त्रिनेत्र ! मैं आपको प्रणाम करता हूं। आपके ३४ अतिशय हैं और आपकी वाणी में ३५ प्रकार की अलौकिक शक्ति है । हम आपकी वाणी की उपासना करते है । कारण यह समस्त भाषानुसारिणी और ग्राम रागमालव, कौशिकी आदि से सुमधुर है। गरुड़ को देखने मात्र से जिस प्रकार नागपाश शिथिल हो जाता है उसी भाँति आपको देखने मात्र से दृढ़बन्ध कर्म भी शिथिल हो जाते हैं । आपको देखकर मनुष्य मोक्षमाग की सीढ़ी रूप गुणस्थान के एक-एक गलि पर चढ़ता जाता है । आपको स्मरण कर, आपकी वाणी मनन कर, आपका गुणगान कर, आपका ध्यान कर, आपको देख कर, आपको स्पर्श कर, आपकी उपासना कर मनुष्य आनन्द प्राप्त करता है । इसलिए आप आनन्द के कन्द हैं । पूर्वजन्म में मैंने बहुत सुकृत किए थे । इसलिए भगवन्, आप मुझे अभूतपूर्व आनन्द देकर मेरी दृष्टि के विषयीभूत बने हैं । मेरा स्वर्ग राज्य आदि वैभव चाहे चला जाए; किन्तु आपकी वाणी मेरे हृदय से कभी नहीं जाए ।' (श्लोक ५७-६४ ) इस प्रकार प्रभु की स्तुति कर शक्र जब चुप हो गए तब त्रिलोकीनाथ ने यह देशना दी 'यह संसार असार है । ऐश्वर्य और वैभव जल- तरङ्ग की भांति अस्थिर और चंचल है । यहाँ तक कि यह शरीर भी विद्युत झलक की भांति क्षण स्थायी है । इसलिए चतुर व्यक्ति का कर्तव्य है संसार, ऐश्वर्य और देह से अनासक्त होकर मोक्ष मार्ग के सर्वाराधना रूप यति धर्म को अङ्गीकार करे । यदि वह यति धर्म

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