Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 5
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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सुन्दर के साथ बसन्तगिरि के शिखर पर चढ़े। उनकी दीक्षा लेने की उत्कट अभिलाषा देखकर उदयसुन्दर बोला-'कुमार, आप आज दीक्षा ग्रहण मत करिएगा। मैं जो तमाशा कर रहा था उसे धिक्कार है ! मैंने तो दीक्षा की बात ऐसे ही हँसी-हँसी में कही थी। अतः हँसी-दिल्लगी में कही हुई बात का उल्लंघन करने में कोई दोष नहीं होता । विवाहोत्सव के गीतों की तरह हँसी-दिल्लगी में कही हुई बात को सत्य नहीं समझना चाहिए। हमारे परिवार की यह आशा कि आप विपत्ति के समय हमारी पूरी मदद करेंगे, दीक्षा ग्रहण कर भाप तोड़ मत दीजिएगा। विवाह के निदर्शन रूप मांगलिक कंकण अभी भी आपके हाथ में बंधे हैं। अत: विवाह से प्राप्त हए भोग का आप सहसा कैसे परित्याग कर सकेंगे। आपके दीक्षा लेने पर मेरी बहन मनोरमा तृण की भांति आप द्वारा पतित्यक्त हो जाएगी । तब सांसारिक सुखों से वंचित होकर वह जीवित कैसे रहेगी ?'
(श्लोक १६-२१) कुमार बोले-चारित्र मानव जन्म रूपी वृक्ष का सुन्दर फल है। स्वाति नक्षत्र का जल जिस प्रकार सीप में पड़कर मुक्ता हो जाता है उसी प्रकार तुम्हारी हँसी-दिल्लगी में कही बात मेरे लिए परमार्थ रूप हो गई है। तुम्हारी बहन यदि कुलवती है तो यह भी मेरे साथ दीक्षा ग्रहण करेगी, नहीं तो उसका सांसारिक जीवन कल्याणमय हो । मेरे लिए तो भोग-सुख अब कोई अर्थ नहीं रखता। अतः तुम मुझे दीक्षा ग्रहण की आज्ञा दो। मेरे बाद तुम भी दीक्षा ग्रहण करना क्योंकि अपनी प्रतिज्ञा का पालन करना क्षत्रिय धर्म
(श्लोक २२-२५) उदयसून्दर को इस प्रकार प्रतिबोध देकर बज्रवाह गुण रूपी रत्नों के सागर गुणसुन्दर मुनि के पास गए और तत्काल उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली। उनके साथ मनोरमा, उदयसुन्दर एवं २५ अन्य राजकुमारों ने दीक्षा ग्रहण कर ली।
(ग्लोक २६-२७) राजा विजय ने जब सुना कि बज्रबाहु ने दीक्षा ग्रहण कर ली है तब सोचने लगे-वह बालक भी मुझ से श्रेष्ठ है और मैं वृद्ध होने पर (भोग सुखलिप्त) भी श्रेष्ठ नहीं हूं। ऐसा सोचते हुए विरक्त बने राजा ने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरन्दर को सिंहासन देकर निर्वाणमोह नामक मुनि से दीक्षा ग्रहण कर ली। (श्लोक २८-२९)