Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 5
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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'मामाजी, आपने हमें अयोध्या जाने की अनुमति तो पहले ही दे दी थी अब उसे कार्यान्वित करें । लम्पाक, रूष, कालाम्बु, कुन्तल, शलभ, अनल, शूल और अन्यान्य देश के राजाओं को भी आदेश दीजिए, प्रयाण वादित बजवाइए ताकि सेना द्वारा दिक् समूह को आच्छादित कर हम अपनी माँ का परित्याग करने वाले राम के पराक्रम को देख सकें ।' ( श्लोक ८५-८४) यह सुनकर सीता अश्रु सिक्त नेत्रों एवं गद्गद् कण्ठ से बोली, 'वत्स, ऐसा विचार कर तुम लोग अनर्थ की इच्छा क्यों कर रहे हो ? तुम्हारे चाचा और पिता तो देवताओं के लिए भी अजेय हैं । उन्होंने त्रिलोक के कण्टक रूप लङ्कापति रावण का भी संहार कर दिया । तुम लोग यदि अपने पिता को देखना चाहते हो तो नम्र बनकर वहाँ जाओ। कारण पूज्य व्यक्तियों से विनयपूर्वक व्यवहार करना चाहिए ।' ( श्लोक ८५-९० ) वे प्रत्युत्तर में बोले, माँ, आपका परित्याग करने वाले राम हमारे शत्रु पद पर हैं । अतः अभी हम उनकी विनय कैसे करें ? हम कैसे जाकर उनसे कह सकते हैं कि हम दोनों आपके पुत्र हैं । ऐसा करना उनके लिए भी लज्जा का कारण होगा; किन्तु हम यदि उन्हें युद्ध में परास्त करें तो यह उनके लिए आनन्द का कारण होगा । इसी में उभय कुल की शोभा है ।' ( श्लोक ९१-९३) सीता कुछ नहीं बोली, केवल रोने लगी । दोनों भाई एक वृहद् सैन्य लेकर अयोध्या की ओर रवाना हो गए। कुठार और कुदाल लिए दस हजार लोग उनकी सेना के आगे पथ परिष्कृत करते हुए चलने लगे । युद्ध की इच्छा वाले दोनों वीर क्रमशः स्वसैन्य से दिक् समूह को आच्छादित करते हुए अयोध्या के निकट जा पहुंचे । ( श्लोक ९४-९६)
अपने नगर के बाहर एक वृहद् सैन्यदल के आने की बात सुनकर राम-लक्ष्मण विस्मित हो गए। दोनों ही मन ही मन हँसे । लक्ष्मण बोले, 'आर्य, अग्रज राम के पराक्रम रूपी अग्नि में जल मरने को कौन आया है ?' फिर शत्रुरूपी अन्धकार में सूर्य से राम-लक्ष्मण सुग्रीवादि वीर सहित युद्ध के लिए नगर से बाहर निकले ।
( श्लोक ९७-९९ )
नारद से भामण्डल को सीता का संवाद मिला । वे तत्काल