Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 5
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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संहार कर देता हूं, तुम खड़े-खड़े देखो । कारण, अन्य की सहायता से विजय पाना पराक्रमी पुरुषों के लिए लज्जास्पद है । आज से मेरे अग्रज राम तुम्हारे स्वामी हैं । मैं यहीं तुम्हें पाताल लङ्का का सिंहासन प्रदान कर रहा हूं ।' ( श्लोक १९-२० ) अपने विरोधी विराध को लक्ष्मण के पक्ष में जाते देखकर खर ने क्रोधित होकर धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और लक्ष्मण को सम्बोधित कर बोला, 'ओ विश्वासघातक ! बता मेरा पुत्र शम्बुक कहाँ है ? मेरे पुत्र की हत्या कर क्या तू इस तुच्छ विराध की सहायता से बचना चाहता है ?" ( श्लोक २१-२२ ) लक्ष्मण ने हँसकर कहा, 'तुम्हारा भाई त्रिशिरा अपने भतीजे को देखने के लिए बहुत उत्सुक हो उठा था । अतः उसे वहां भेज दिया है । अब यदि तुम अपने पुत्र और अनुज को देखने के लिए उत्सुक हुए हो तो मुझे भी वहां भेज देने के लिए मैं धनुष उठाए प्रस्तुत हूं । ( श्लोक २३-२४) 'ओ मूढ़, मेरे पैरों तले आकर जिस प्रकार चींटी मर जाती है उसी प्रकार प्रमादवश की हुई मेरी क्रीड़ा के प्रहार से तेरा पुत्र मारा गया है । उसमें मेरा कोई पराक्रम नहीं था; किन्तु स्वयं को योद्धा कहने वाले अभिमानी तुम मेरा रण कौतुकपूर्ण करो तो वनवास में भी मैं दानी बनूँगा अर्थात् मैं तुम्हें यमराज को अर्पित करूँगा ।' ( श्लोक २५-२६) लक्ष्मण का यह कथन सुनकर खर उन पर हस्ती जैसे गिरिशिखर पर प्रहार करता है उसी प्रकार तीक्ष्ण शरों से प्रहार करने लगा । सूर्य जैसे अपने किरणजाल से आकाश को आच्छादित कर देता है उसी प्रकार लक्ष्मण ने भी सहस्रकंक पत्त्रों सेकङ्क पक्षी के पङ्ख युक्त तीरों से आकाशमण्डल को आच्छादित कर दिया । इस प्रकार लक्ष्मण और खर में भीषण युद्ध हुआ जो कि खेचरों के लिए भयङ्कर और यमराज के लिए तो महोत्सव तुल्य था । उसी समय आकाश में यह स्वर गूँजा - ' वासुदेव के सन्मुख जिसका ऐसा पराक्रम है वह खर प्रतिवासुदेव से भी अधिक वीर है ।' आकाश में इस स्वर के गूंजित होने से लक्ष्मण ने इसका वध करने में समय नष्ट करना उचित नहीं समझा । अतः क्षुरप्र अस्त्र से उसका शिरोच्छेद कर डाला । तब खर का भाई दूषण लक्ष्मण
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