Book Title: Trishashti Shalaka Purush Charitra Part 5
Author(s): Ganesh Lalwani, Rajkumari Bengani
Publisher: Prakrit Bharti Academy
View full book text
________________
194]
उसका वह सन्तोष दुःख में बदल गया। वह अपने भ्राता, पुत्र और मित्रों के बन्धन को स्मरण कर रोने लगा-'हे वत्स कुम्भकर्ण, तुम मेरी दूसरी आत्मा थे। हे पुत्र इन्द्रजीत, हे मेघवाहन ! तुम दोनों मेरी दोनों भुजाओं के तुल्य थे। हे जम्बूमाली आदि वीरो ! हे मित्रो, तुम लोग मुझ से अभिन्न थे। तुम लोग तो गजेन्द्र की तरह बन्धन में आने वाले नहीं थे। फिर तुम कैसे बन्धन में पड़ गए ?' इस प्रकार उन्हें स्मरण कर रोते-रोते रावण बार-बार गिरा जा रहा था, मूच्छित हो रहा था। पुनः संज्ञा लौटने पर विलाप करने लगता था और पुनः मूच्छित हो जाता था। (श्लोक २५६-२५९)
राम की सेना के चारों ओर निर्मित प्राकार के दक्षिण द्वार के रक्षक भामण्डल के निकट एक विद्याधर आया और बोला, 'यदि तुम राम का हित चाहते हो तो मुझे इसी क्षण राम के पास ले चलो। मैं लक्ष्मण को बचाने का उपाय बतलाऊँगा क्योंकि मैं तुम्हारा हितैषी हूं।'
(श्लोक २६०-२६१) यह सुनकर भामण्डल हाथ पकड़कर उसे राम के पास ले गया। वह राम को प्रणाम कर बोला-'हे स्वामी ! मैं संगीतपुर के राजा शशिमण्डल का पुत्र हूं। मेरा नाम प्रतिचन्द्र है। सुप्रभा नामक रानी के गर्भ से मेरा जन्म हुआ है । एक बार मैं विमान में बैठकर क्रीड़ा करने के लिए स्व-पत्नी के साथ आकाश-पथ से जा रहा था। सहस्रविजय नामक विद्याधर ने मुझे देखा और मेरे विवाह सम्बन्धी वैर के कारण बहुत देर तक मुझसे युद्ध किया। अन्ततः चण्डरवा शक्ति के प्रहार से मुझे नीचे गिरा दिया। मैं अयोध्या के महेन्द्रोदय नामक उद्यान में जा पड़ा । मुझे नीचे गिरा हुआ देखकर आपके अनुज भरत ने सुगन्धित जल लाकर मेरे क्षत स्थानों पर लगाया। चोर जैसे अन्य के घर से भाग जाता है उसी प्रकार वह शक्ति मेरी देह से निकलकर भाग गई और मेरा घाव भर गया। मैंने आश्चर्य के साथ आपके अनुज से उस जल के माहात्म्य की बात पूछी वे बोले-
(श्लोक २६२-२६८) _ 'एक बार विन्ध्य नामक सार्थवाह गजपुर से यहाँ आए थे। उनके साथ एक भैंसा था। उस पर अत्यधिक भार लादा हुआ था। उस भार को सहन न कर सकने के कारण वह रास्ते में ही गिर गया। उसमें उठने की भी शक्ति नहीं थी। अतः विन्ध्य उसे वहीं