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श्री शंखेश्वर तीर्थ
तीर्थाधिराज श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 180 सें. मी. (6 फुट) (श्वे. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल शंखेश्वर गाँव के मध्यस्थ ।
प्राचीनता प्राचीन ग्रंथों में इसका शंखपुर नाम से उल्लेख आता है । आधुनिक रचनाओं में भी इसका उल्लेख किया गया है । यह तीर्थ स्थल महान चमत्कारी होने के कारण गाँव का नाम भी शंखेश्वर पड़ा । जैन ग्रन्थों में उल्लेखानुसार प्राचीन काल में आषाढ़ी श्रावक ने चारुप, स्तंभपुर, और शंखेश्वर में जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करायी थीं । एक किंवदन्ति के अनुसार जरासंध व कृष्ण के बीच हुए युद्ध के समय जरासंध ने श्रीकृष्ण की सेना पर जरा फेंकी । तब इस
प्रभु प्रतिमाजी का न्हवण-जल सेना पर छिड़काया जिसके प्रभाव से उपद्रव शांत हुआ । शंखेश्वर पार्श्व प्रभु की प्रतिमा का इतिहास अति ही प्राचीन व प्रभावशाली है ।
सिद्धराज जयसिंह के महामंत्री सज्जनशाह ने विक्रम सं. 1155 में इस तीर्थ का उद्धार कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमाचन्द्राचार्य के गुरुवर महान आचार्य श्री देवन्द्र सूरीश्वरजीके सन्निध्य में कराया था । उस समय यह स्थल जाहोजलालीपूर्ण था, ऐसा शास्त्रों में उल्लेख मिलता है ।
मंत्री वस्तुपाल तेजपाल ने आचार्य श्री वर्द्धमान सुरिजी के मुखारबिन्द से इस तीर्थ की महिमा सुनी, जिससे प्रभावित होकर आवश्यक जीर्णोद्धार का कार्य करवाया व इस बावन जिनालय की देरियों पर स्वर्ण कलश चढ़ाये-ऐसा शास्त्रों में उल्लेख मिलता है । यह जीर्णोद्धार लगभग विक्रम संवत् 1286 में हुआ होगा।
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जिनालय का भव्य प्रवेश द्वार - शंखेश्वर
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