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श्री विदिशा तीर्थ
श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान (श्वे.)-विदिशा
तीर्थाधिराज 1. श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, (श्वे. मन्दिर) ।
2. श्री शीतलनाथ भगवान (दि. मन्दिर) । तीर्थ स्थल विदिशा के भग्नप्राय किले में ।
प्राचीनता विदिशा शहर को पूर्व में भेलसा । कहते थे । यहाँ के स्टेशन का नाम भी विदिशा है ।
पूर्वकाल में इसके नाम भाइलस्वामीगढ़, भद्रपुर, भदिलपुर, भद्रिलपुर आदि नामों से विख्यात रहने का व प्राचीनकाल में दशार्ण देश की यह राजधानी रहने का उल्लेख है अतः भाइलस्वामीगढ़, भद्दिलपुर आदि इसके अंग रहे होंगे । ये नगर वेत्रवती बितवा) नदी के तट पर स्थित है । __ श्री शीतलनाथ भगवान के तीन कल्याणकों (च्यवन, जन्म व दीक्षा) की भूमि भद्दिलपुर भी यही रहने का संकेत है । एक और मतानुसार प्रभु के ये कल्याणक बिहार प्रांत में गया जिले के अंतर्गत हटवारिया के निकट रहने का भी उल्लेख है । गया के निकट एक पहाड़ीपर प्रभु की तपोभूमी व मोक्ष स्थान भी बताते हैं। यह पूर्ण अनुसंधान का विषय है । परन्तु इस क्षेत्र में जगह जगह पर स्थित व भूगर्भ से प्राप्त प्राचीन मन्दिरों, प्रतिमाओं, कलात्मक ध्वंसावशेषों व विभिन्न उल्लेखों से यह अवश्य सिद्ध होता है कि यह प्राचीन क्षेत्र है । अतः श्री शीतलनाथ भगवान की यह कल्याणक भूमि रहने की मान्यता संभवतः सही हो सकती है ।
श्री नेमिनाथ भगवान का यहाँ पदार्पण होने का भी उल्लेख है भगवान महावीर का पाँचवा चातुर्मास यहाँ होने का भी उल्लेख है । कहा जाता है कि सप्रति राजा का यहाँ महल था ।
प्रभ वीर के समय श्री विद्यन्माली देव द्वारा गोशीर्ष चन्दन से निर्मित प्रभु की प्रतिमा, जो जीवित स्वामी के नाम विख्यात थी, यहाँ रहने का व आर्य महागिरि व सहस्तिगिरि का यहाँ प्रतिमाजी के दर्शनार्थ आने का उल्लेख है । कुमारपाल राजा प्रतिबोधक आचार्य श्री हेमचन्द्राचार्य ने इस प्रभु प्रतिमा को राजकुमार के योग्य अलंकारों से सुशोभित बताया है । पुरातत्ववेता श्री उमाकांतशाह ने इस प्रतिमा को श्री विधुन्मालीदेव
द्वारा ई. सं. पूर्व 561 के आसपास बनाई बताया है। एक अन्य मतानुसार यह प्रतिमा उज्जैन के राजा चन्डप्रद्योतन के पास व सिंधुसौवीर के राजा उदापन के पास भी रहने का भी उल्लेख है । परन्तु आज वह प्राचीन प्रतिमा कहाँ व किस मन्दिर में है, उसका पता नहीं है।
यहाँ से निकट लगभग 4 कि. मी. दूर उदयगिरि पहाड़ी में जो विंध्याचल पर्वत का एक भाग है, व लगभग 2 कि. मी. लम्बाई व 350 फीट ऊँचाई में है, जहाँ 20 गुफाएँ हैं; जो स्थापत्यकला की दृष्टि से देश में सर्वाधिक प्राचीन गुफाओं में है । इनमें प्रथम व अंतिम गुफा जैन धर्म से सम्बंधित है, जहाँ जिनेश्वर भगवतों व यक्ष-यक्षी की प्रतिमाएँ विभिन्न आसनों व आकृतियों में अतीव दर्शनीय है । अंतिम गुफा में स्थित श्री पार्श्वप्रभु की प्रतिमा अतीव मनोरम, कलात्मक व भावात्मक है जो आर्य भद्रशाखा के आर्य कुल के शूरवीर महासुभा को हराने वाले जन समूह के मान्य गौशरा के पुत्र श्री शंकर द्वारा सं. 106 में
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