Book Title: Tiloypannatti Part 1
Author(s): Vrushabhacharya, Chetanprakash Patni
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
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................लं सुबोधकगलं सग्मंगवीणीचर्य, गंभीर मिणिलट्ठपालिकलितं सच्चाधु हंसाकुरूं। पग्णाधीसडिट्ठ पाथगरवगट्ठाष्णियजीयारदुग्गदितापवृद्धिहणणं जंणागमक्खं सरो॥८॥ जिणं णुरु............... सयं धणुप्पमाणो सुद्धफलिहमयं ।
हरिपुरणाहं तं संसारविसमविसरुषखमूल उप्पणणिउणचंदण्यहं बथे ॥९॥ हरिहरहिरण्यगर्भसंत्रासितमदनमदाजगजांकुशस्तवनकृतार्थीकृतसकलविनेयमनाय हरि................नमः ॥
श्रीमानस्ति समस्तदोषरहित प्रख्यातलोकत्रमाधोशाम्रडित पाइपययुगलः सज्जानतेजोनिधिः । बुरिस्मरगर्वपर्वतपविमिध्याहगंधुभ्रम - सत्योद्धारणधीरधिषणो सो सम्मतीयो जिनः ॥१०॥ सकसजगदानंदनकर अभिनन्दनं णमः॥
( यहीं प्रन्य का अन्त हुआ है।) ४. सम्पादन विधि :
किसी भी प्राचीन रचना का हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर सम्पादन करना कोई प्रासान काम नहीं है । मुद्रित प्रति सामने होते हुए भी कई बार पाठान्तरों से निर्णय लेने में बहुत श्रम और समय लगाना पड़ा है इसमें, नतमस्तक हूं तिलोयपण्णत्ती के प्रथम सम्पादकों की बुद्धि एवं निष्ठा के समक्ष । सोचता हूं उन्हें कितना अपार अथक परिश्रम करना पड़ा होगा। क्योंकि एक तो इसका विषय ही जटिल है, दूसरे उनके सामने तो हस्तलिखित प्रतियों की सामग्री भी कोई बहुत सन्तोषजनक नहीं थी । उन्हें किसी टीका, छाया अथवा टिप्परग की भी सहायता सुलभ नहीं थी । मुझे तो हिन्दी अनुवाद, सम्भवपाठ, विचारणीय स्थल ग्रादि से पूरा मार्गदर्शन मिला है।
प्रस्तुत संस्करण का मूलाधार श्रवणबेलगोला को ताड़पत्रीय कानड़ी प्रतिलिपि है। लिप्यन्तरण श्री एस० बी० देवकुमार शास्त्री ने भिजवाए हैं । उसी के आधार पर सारा सम्पादन हुआ है । मूडन्निद्री की प्रति भी लगभग इस प्रति जैसी ही है, इसके पाठान्तर श्री देवकुमारजी शास्त्री ने भिजवाए थे।
तिलोयपण्णत्ती एक महत्वपूर्ण धर्मग्रन्थ है और इसके अधिकांश पाठक भी धार्मिक रुचि सम्पन्न श्रावक श्राविका होंगे या फिर स्वाध्यायशील मुनि प्रायिका आदि। इन्हें ग्रन्थ के विषय में अधिक रुचि होगी, ये भाषा की उलझन में नहीं पड़ना चाहेंगे, यही सोचकर विषय के अनुरूप सार्थक पाठ