Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 9
________________ तत्यार्थचिंतामणिः इस अनाद्यनन्त संसारमै अनन्तानन्त जीव तत्वबोधक विना अनेक दुःखोंसे पीडित हो रहे हैं, उनमें असंख्य प्राणी गृहीतमिथ्यासके वशीभूत होकर युवत्यनुभवसे शून्य कोरे वाग्जाल में फंसकर सदागम सूर्यप्रकाशके रहते हुए भी दुःखान्धगर्तमें गिरते चले जा रहे हैं। सम्पूर्ण जीवोंको संसार व्याधिसे छुडाकर उत्तम सुस्वमें धारण करानेका लक्ष्य कर ही सनातन जैनधर्मके तत्वोंका ज्ञान श्री अन्तदेवकी द्वादशाङ्गमय वाणीसे जागरूक हो रहा है ! यह धर्मजागृति किसी विशेष ग्रुगगे ही नहीं, किन्तु अनादिकालसे मोक्षमार्गका उपदेश देनेवाले अनेक तीर्थकर महाराजोद्वारा अद्यावधि धाराप्रयाहरूपसे चली आ रही है और इसी क्रमसे अनन्तकाल तक सुसंघटित रूपसे चलती रहेगी। इसके द्वारा ही जीवोंके अन्तस्तलमें छिपा हुआ अवस्सुका स्वाभाविक स्वरूप समय समय पर प्रगट होता रहता है। अनन्त पुरुषार्थी भव्य जीवोंने श्रीतीर्थकर भगवानके उपदेशद्वारा कैवल्य और निःश्रेयस प्राप्त किया है। वर्तमान अवसर्पिणी काल सम्बन्धी चौबीसवें तीर्थङ्कर श्रीवर्धमान स्वामीने पूर्व जन्में उपार्जित तत्वज्ञान और तीर्थकरत्वके प्रभावसे वैराग्य प्राप्त कर जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण की तथा विविध तपस्याओंको करके पौगलिक दुष्कर्माका क्षय करते हुए सर्वज्ञता प्राप्त कर अनेक मन्यजीवोंको सम्पूर्ण पदार्थोके प्रतिभास करानेशले द्वादशाम श्रुतज्ञानका पर दिया : ओ कि सिस, आप व्याकरण, साहित्य, स्याद्वाद, ज्योतिष, निमितशास्त्र, कला, विज्ञान आदिसे परिपूर्ण था। उस उपदेशको अविकल रूपसे धारण करनेवाले श्री गौतमस्वामीने आचारा आदि चारह अंगरूप था। तदनन्तर गुरुपरिपाटी और आम्नायके अनुसार वही सर्वज्ञोक्त श्रुतज्ञानका उपदेश अङ्ग अङ्गांश रूपसे अधावधि चला आ रहा है । सम्पूर्ण ज्ञानका प्रतिपादन शब्दोंके द्वारा असम्भव है । केवल श्रुतज्ञानके कतिपय अंशोंका ही समझाना और लिखना हो सकता है। अतः सर्वज्ञदेवसे भाषित अर्थ स्वांशी परिपूर्ण होता हुआ अधिकलरूपसे भविष्यमें भी प्रवाहित रहे, इस परोपकार बुद्धिसे प्रेरित होकर प्रकाण्ड, प्रतिभाशाली, पूज्यपाद, आचार्यवोने सिद्धान्त, न्याय आदि मोक्षमार्गोपयोगी ग्रन्थोंकी रचना की। जीव आदि वस्तुओंके अन्तस्तलपर पहुंचाकर अनुभव कराने वाले आगमोंको समुदायरूपसे न्याय, सिद्धान्त, शास्त्र कहते हैं। प्रत्येकका लक्षण इस प्रकार है-प्रमाण तथा नयोंके द्वारा बस्तु और वस्तुके धर्मों की परीक्षाको न्याय कहते हैं, तथा सर्वज्ञकी ज्ञानधाराके अनुसार प्रमाण सिद्ध पदार्थोके निर्णयको सिद्धान्त कहते हैं। सिद्धान्त ग्रन्थ यदि अक्षय भण्डार हैं तो न्यायशास्त्र उनकी रक्षा करनेवाले दुर्ग (किले ) है तथा युक्तिप्रधान हेतुवादके कतिपय वचन अनुभत्री सम्यादृष्टि विद्वानोंको आगमद्वारा भी परिरक्षणीय होते हैं। अतः श्रीकुन्दकुन्द, धरसेन, नेमिचन्द्र आदि आचार्योंने सिद्धान्तप्रधान और युक्तिवादगौण ऐसे अनेक सिद्धान्तपाभृत अन्य निर्माण किये हैं तथा श्री समन्तभद्र अफलंक, माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र, प्रभृति प्रतिपादिभयंकर ऋषियोंने प्रमाण, नय और युक्तियोंके द्वारा तत्तोंके अधिगम करानेवाले न्याय शास्त्र रहे हैं। न्याय और सिद्धान्तके

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