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धर्म-भ्रष्ट
प्रथम महायुद्ध के फलस्वरूप १९२३ के उस काल में भारत की जनता विदेशी के सम्पर्क मे मा चुकी थी। यह सम्पर्क युद्ध-काल मे फास और तुर्की इत्यादि रणक्षेत्रो मे स्थापित हुआ था । विदेशो की भौतिक उन्नति और शिक्षा का वहा जो प्रसार था, उसने भारतीय जनता को प्रभावित किया । इन बातो से आकर्षित होकर अधिकाधिक भारतीय शिक्षा प्राप्ति के लिए विदेशो मे जाने लगे । यह एक ऐसी सामयिक घटना थी, जिससे जैन समाज प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था । कुछ जैन भाई भी शिक्षा प्राप्ति के लिये विदेशो मे गये । वस ये यात्राएं ही समाज मे मीपण विवाद का विषय बन गयी । प्रतिक्रियावादी, रूढिवादी दल ने इस प्रकार की यात्रामो का विरोध किया। इसके विपरीत सुधारक दल ने विदेशो से प्राप्त की गयी शिक्षा के महत्व को समझते हुए इनका समर्थन किया।
आज ३७ वर्ष बाद यह वात विल्कुल स्पष्ट है कि सच्चाई किस पोर थी। आज रुढिवादी का घोर से घोर समर्थक ऐसा कोई समर्थ जैन परिवार नही, जिसकी सताने उद्योगो के प्रसार और और शिक्षा प्राप्ति के लिए विदेशो मे नही गयी हो। महासभा के समर्यको मे से बहुत से लोग स्वय अनेक वार विदेश-यात्रा पर जा चुके है। फिर भी १९२३ के उस काल मे महज विदेश-यात्रा का समर्थन करने के कारण सुधारक दल को "धर्म-भ्रष्ट" की सज्ञा दी गयी थी।
ऐसी ही एक अन्य वात मुद्रित अर्थात् छापेखाने द्वारा छपी हुई धार्मिक पुस्तको का प्रकाशन और वितरण की थी। रुढिवादी दल एकमात्र हस्तलिखित धार्मिक पुस्तको के पक्ष में था
और मुद्रित धार्मिक पुस्तको को वह धर्मविनाशकारी बतलाता था। इसके विपरीत सुधारक दल समय और परिस्थितियो के महत्व को समझते हुए अधिकाधिक जनता में धार्मिक पुस्तकों के प्रचार की दृष्टि से धार्मिक पुस्तको का मुद्रण और प्रकाशन आवश्यक मानता था। प्रतिक्रियावादी दल निजी गृहो तक मै मुद्रित धार्मिक पुस्तकें रखने के विरुद्ध था । ३७ वर्ष बाद भाज क्या स्थिति है ।
आज जैन मन्दिरो तक मे मुद्रित जैन-शास्त्र मिलते है। जैन-शास्त्री के मुद्रण के फलस्वरूप प्राज अनेको जन-परिवारो मे शास्त्र देखने को मिल रहे हैं । १९२३ से पूर्व केवल अत्यधिक सम्पन्न परिवारो और बड़े-बड़े मन्दिरो मे ही जैन-शास्त्र दृष्टिगोचर होते थे। जाति-पांत लोपक
१९३८ तक जैन दस्सायो एव विनेयकवारो को जिन मन्दिर मे पूजन के अधिकार प्राप्त नही थे। "सब मनुष्य समान है" भगवान महावीर स्वामी के इस उपदेश मे श्रद्धा रखने वाले जैन समाज तक मे अनेक पीढियो पुरानी किसी भूल के कारण वे भाई पूजन के अधिकार से वंचित थे । उन्हे दस्सा एव विनेयकवार इत्यादि नाम देकर नीच और अछूत जैसा समझा जाता था। परिपद के झण्डे तले सुधारवादी व्यक्तियो ने इस अन्याय का विरोध किया। सन् १९३८ के नवम्बर मास मे हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र मेले के अवसर पर श्री रतनलाल जी के सभापतित्व में परिपद सम्मेलन मे १६८ ]