Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 439
________________ वह १७ पद्यो का एक सुन्दर रूपक काव्य है। उन्होने 'जिनजी की रसोई' मैं तो विवाहोपरांत सुस्वादु भोजन और वन विहार का भी उल्लेख किया है ।" बनारसीदास ने तीर्थ कर शातिनाथ का शिवरमणी से विवाह दिखाया है। शांतिनाथ विवाह मडप मे माने वाले है । होने वाली वधू की उत्सुकता दवाये नही दवती । वह अभी से उनको अपना पति मान बैठी है । वह अपनी सखी से कहती हैं, "हे सखी आज का दिन अत्यधिक मनोहर है, किन्तु मेरा मनभाया अभी तक नही आया । वह मेरा पति सुखकद है और चन्द्र के समान देह को धारण करने वाला है, तभी तो मेरा मन उदवि धानन्द से आन्दोलित हो उठा है । और इसी कारण मेरे नेत्र- चकोर सुख का अनुभव कर रहे हैं। उसकी सुहावनी ज्योति को कीर्ति ससार मे फैली हुई है । वह दुखरूपी अधकार के समूह को नष्ट करने वाली हैं। उनकी वाणी से अमृत करता है । मेरा सौभाग्य है जो मुझे ऐसे पति प्राप्त हुए।" तीर्थंकर अथवा आचार्यों के सयमश्री के साथ विवाह होने के वर्णन तो बहुत अधिक है । उनमे से 'जिनेश्वर सूरि और जिनोदय सूरि विवाहला' एक सुन्दर काव्य है । इसमे इन सूरियो का संयमश्री के साथ विवाह होने का वर्णन है। इसकी रचना वि० स १३३१ में हुई थी । हिन्दी के कवि कुमुदचन्द का 'ऋषभ विवाहला' भी ऐसी ही एक कृति है । इसमे भगवान ऋषभनाथ का दीक्षा कुमारी के साथ विवाह हुआ है। श्रावक ऋपभदास का 'आदीश्वर विवाहला' भी बहुत ही प्रसिद्ध है। विवाह के समय भगवान ने जिस चुनडी को मोदा था, वैसी चुनडी छपाने के लिए न जाने कितनी पत्नियाँ अपने पतियों से प्रार्थना करती रही हैं । १६वी शती के विनयचन्द्र की 'चुनड़ी' हिन्दी साहित्य की प्रसिद्ध रचना है । साघुकीर्ति को चुनडी मे तो मगीतात्मक प्रवाह भी है । तीर्थंकर नेमीश्वर और राजुल का प्रेम नेमीश्वर और राजुल के कथानक को लेकर जैन हिन्दी के भक्तकवि दाम्पत्य भाव प्रकट करते रहे है । राजशेखर सूरि ने विवाह के लिए राजुल को ऐसा सजाया है कि उसमें मृदुल काव्यत्त्व ही साक्षात् हो उठा है। किन्तु वह वैसी ही उपास्य बुद्धि से संचालित है, जैसे राधासुधानिधि मे राधा का सौन्दर्य । राजुल को शील-सती शोभा मे कुछ ऐसी बात है कि उससे ५. देखिए, 'हिन्दी के भक्तिकाव्य मे जैन साहित्यकारो का योगदान' छठा अध्याय, पृ० ६५६ 1 ६ सहि एरी दिन आज सुहाया मुझ भाया बाया नहि घरे । सहि एरी । मन उदधि अनन्दा सुख, कन्दा चन्दा देह घरे ॥ चन्द जिवाँ मेरा वल्लम सोहे, नैन चकोहि सुक्ख करें। जग ज्योति सुहाई कीरति छाई, बहु दूख तिमर वितान हरै ॥ सहु काल विनानी अमृतवानी, अरु मृग का लच्छन कहिये । श्री शान्ति जिनेश नरोत्तम को प्रभु, आज मिला मेरी सहिये ॥ - बनारसीदास, बनारसी विनाम, श्री शान्तिनाथ जिन स्तुति, प्रथम पद्य, पृ० १८ । [ ४०३

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