Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 445
________________ किन्तु वैसा श्राकर्षण नही, जैसा कि आनन्दधन मे है । जायसी के प्रवन्धकाव्य मे अलौकिक की ओर इशारा भले ही हो, किन्तु लौकिक कथानक के कारण उसमे वह एकता नहीं निभ सकी है, वैसी कि प्रानन्दधन के मुक्तक पदो मे पाई जाती है। मुजान वाले घनानन्द के बहुत ने पद भगवद्भक्ति मे वैसे नही खुप सके, जैसे कि सुजान के पक्ष में घंटे है । महात्मा बानन्दघन जैनो के एक पहुँचे हुए साधु थे। उनके पदो मे हृदय की तल्लीनता है। उन्होंने एक स्थान पर लिखा है, "सुहागिन के हृदय में निर्गुण ब्रह्म की अनुभूति से ऐसा प्रेम जागा है कि अनादि कान ने चली आने वाली अज्ञान की नीद समाप्त हो गई। हृदय के भीतर भक्ति के दीपक ने एक ऐसी सहज ज्योति को प्रकाशित किया है, जिसमे घमण्ड स्वयं दूर हो गया और अनुपम वस्तु प्राप्त हो गई। प्रेम इक ऐसा अचूक तीर है कि जिसके लगता है वह ढेर हो जाता है । वह एक ऐसा वीणा का नाद है, जिसको सुनकर आत्मा रूपी मृग तिनके तक चरना भूल जाता है । प्रभु तो प्रेम से मिलता है, उसकी कहानी कही नही जा सकती । १ भगवान आते हैं, तो । लम्बी प्रतीक्षा के भक्त के पास भगवान स्वय श्राते है, भक्त नही आता । जब भक्त के आनन्द का वारापार नही रहता । श्रानन्दघन की सुहागिन नारी के नाथ भी स्वयं प्राये है और अपनी 'तिया' को प्रेमपूर्वक स्वीकार किया है बाद श्राये नाम की प्रसन्नता मे, पत्नी ने भी विविध भाति के ट गार किए है। उसने प्रेम, प्रतीति, राग और वि के रंग में रंगी साडी धारण की है, भक्ति को मेहंदी राची है और भाव का नुखकारी प्रजन लगाया है । सहज स्वभाव की चूडिया पहनी हैं और शिक्षा का भारी कगन धारण किया है। ध्यान रूपी उरवसी गहना वक्षस्थल पर पडा है और पिय के गुण की माला को गले मे पहना है । सुरत के सिंदूर से माग को सजाया है और निरति को वेणी को आकर्षण ढंग से गया है। उनके घर मे त्रिभुवन की सबसे अधिक प्रकाशमान ज्योति का जन्म हुआ है । वहा से अनहद २१ सुहागण जागी अनुभव प्रीति । सुहा० ॥ निन्द अज्ञान अनादि की मिट गई निज रीति ||१|| सुहा० घट मन्दिर दीपक कियो, सहज नुज्योति मरूप । आप पराइ आप ही, ठानत वस्तु अनूप ॥ मुहा० ॥२॥ कहा दिखावु और कू, कहा समभाउ भीर । तीर अचूक है प्रेम का, लागे सो रहे ठीर ॥ मुहा० ॥३॥ नाद विलुद्धो प्राण ले, गिने न तृण मृगलीय | आनन्दघन प्रभु प्रेम का, प्रकथ कहानी वोय || मुहा० ॥|४|| - महात्मा आनन्दघन, ग्रानन्दघन पद मग्ग्रह, प्रभ्यात्म ज्ञान प्रभा बम्बई त्रोश मण्डल, | पृ० ७ [ ४०६

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