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थी। इन लोगो ने यहूदी धर्म के कर्मकाण्डो का पालन त्याग दिया। ये वस्ती से दूर जगलो मे या पहाडो पर कुटी बनाकर रहते थे। जैन मुनियों की तरह अहिंसा को अपना खास धर्म मानते थे। मास खाने से उन्हे वेहद परहेज था । वे कठोर और मयमी जीवन व्यतीत करते थे । पैसा या धन को छने तक से इन्कार करते थे। गेगियो और दुर्बलों की सहायता को दिनचर्या का आवश्यक प्रग मानते थे । प्रेम और सेवा को पूजा-पाठ मे बढकर मानते थे । पशुबलि का तीव्र विरोध करते थे। शारीरिक परिश्रम मे ही जीवन-यापन करते थे । अपरिग्रह के सिद्धान्त पर विश्वास करते थे । समस्त सम्पत्ति को समाज की सम्पत्ति समझते थे। मित्र में इन्ही तपम्विगे को 'थेरापूते' कहा जाता था । पेरापूते का अर्थ है 'मौनी अपरिग्रही'।
__'सियाहत नाम ए नासिर' का लेखक लिखता है कि इस्लाम धर्म के कलन्दरी तबके पर जैन धर्म का काफी प्रभाव पडा था । कलन्दरो को जमात परिवाजको की जमात थी। कोई कलन्दर दो रात से अधिक एक घर में न रहना या । कलन्दर चार नियमो का पालन करते येसाधुता, शुद्धता, सत्यता और दरिद्रता । वे अहिमा पर अखन्ड विश्वास रखते थे।
एक वार का किस्सा है कि दो कलन्दर मुनि बगदाद मे आकर ठहरे। उनके सामने एक शुतुरमुर्ग गृह-स्वामिनी का हीरो का एक बहुमूल्य हार निगल गया । सिवाय कलन्दरो के दिमी ने यह घटना देखी नहीं । हार की खोज गुरू हुई। शहर कोतवाल को सूचना दी गई। उन्हें कलन्दर मुनियो पर सन्देह हुआ। कलन्दर मुनियो मे प्रश्न किये गये । मुनियो ने उस मूक पक्षी के साथ विश्वासघात करना उचित नहीं समझा। क्योकि हार के लिए उस मूक पक्षी को मारकर उसका पेट फाडा जाता । मन्देह मे मुनियो को बेरहमी के साथ पीटा गया। वे लोह-लोहान हो गये किन्तु उन्होंने शुतुरमुर्ग के प्राणो की रक्षा की।
___ सालेहविन अब्दुल कुद्स भी एक अहिंसावादी अपरिगही परिव्राजक मुनि था, जिसे उसके क्रान्तिकारी विचारो के कारण सन् ७५३ ईस्वी मे सूली पर चढ़ा दिया गया । अकुल अतारिया, जरीर इन्न हज्म, हम्माद अजरद, यूनान विना हास्न, अली विन खलील और बरशार अपने समय के प्रसिद्ध अहिंसावादी निर्ग्रन्थी फकीर थे।
नवमी और दसवी गताब्दियो मे अव्वासी खलीफाओं के दरदार में भारतीय पडितो और साधुओ को आदर के साथ निमत्रित किया जाता था। इनमे वौद्ध और जैन साधु भी रहते थे। इन्न अन नजीम लिखता है कि-"अरबो के शासनकाल मे यह्यिा इन्न खालिद बरमकी ने खलीफा के दरवार और भारत के साथ अत्यन्त गहरा सम्बन्ध स्थापित किया। उनने बड़े अध्यवसाय और भादर के साथ भारत से हिन्दू, बौद्ध और जैन विद्वानो को निमन्त्रित किया।"
सन् १९८ ईस्वी के लगभग भारत के बीन साधु-सन्यामियो ने मिलकर पश्चिमी एगिया के देशो की यात्रा की । इस दल के माथ चिकित्सा के रूप में एक जैन मन्यासी भी गये थे। एक वार ग्वदेश लौटकर यह दल फिर पर्यटन के लिए निकल गया । २६ वर्ष के बाद जब सन् १०२४ ईसवी मे यह लोग अन्तिम बार स्वदेश लौटे तव उम समुदाय के माय सीरिया के मुविन्यात अन्य कवि प्रवुलमला अलमारी का परिचय हुआ । अवुलमला का जन्म सन् ९७३ ईसवी में हुआ और
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