Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 476
________________ मृत्यु सन् १०५८ ईसवी मे । जर्मन विद्वान वान केमर ने लिखा है कि अबुलपला सभी देशो और सभी युगो के सर्वश्रेष्ठ सदाचार शास्त्रियो मे से एक था। अबुलअला जब केवल चार वर्ष के थे तभी चेचक के भयकर प्रकोप मे अन्धे हो गये थे। किन्तु उनकी ज्ञान-तृष्णा इतनी अदम्य थी कि वे स्पेन से मिस्र और मिस्र से ईरान तक अनेको स्थान मे गुरू की तलाश मे ज्ञानार्थी बनकर धूमते रहे । अन्त मे बगदाद मे जैन-दार्शनिको के साथ उनका ज्ञान-समागम हुमा । साधना द्वारा उन्होने परमयोगी पद को प्राप्त किया। उनकी ईश्वर की कल्पना इस्लाम की कल्पना से नितान्न भिन्न थी। बहिश्त के लिए उनकी जरा भी ख्वाहिश नही थी । वे दुखमय सत्ता को ही समस्त दुखो का मूल मानते थे । बगदाद से सीरिया लौटकर एक पर्वत की कन्दरा में रहकर उन्होने प्रति कृच्छ्तपश्चरण किया। उसके बाद उनका जीवन ही बदल गया । मद, मत्स्य, मास, अण्डे एव दूध तक का उन्होने परित्याग कर दिया । उनका जीवन पहिसामय एव मैत्रीपूर्ण बन गया। अबुलअला का इस बात में विश्वास नहीं था कि मुर्दे किसी दिन कत्रो मे से निकलकर खडे हो जायेंगे । बच्चा पैदा करने के कार्य को वह पाप मानता था। अपने पृथक अस्तित्व को मिटा देने को वह मनुष्य जीवन का वास्तविक लक्ष्य मानता था। वह आजीवन मनसा, वाचा, कर्मणा ब्रह्मचारी रहा । उसने अपने एक मजन मे लिखा है - "हनीफ ठोकरे खा रहे है, ईसाई सब भटके हुए है, यहूदी चक्कर में है, भोगी कुराह पर वढे जा रहे है । हम नागवान मनुष्यो मे दो ही खास तरह के व्यक्ति है-एक बुद्धिमान शठ और दूसरे धार्मिक मूढ ।" अबुलाला का एक दूसरा भजन है : "कोई वस्तु नित्य नहीं है । प्रत्येक वस्तु नाशवान है । इस्लाम भी नष्ट होने वाला है। हजरत मूसा भाये, और उन्होने अपनी पाच वक्त की नमाज चलाई। कुछ दिनो बाद कोई दूसरा मजहब आकर इसकी जगह ले लेगा । इस तरह मानव-जाति वर्तमान और भविष्य के बीच में मौत की तरह हकाई जा रही है । यह धरती नाशवान है। जिस तरह इसका आरम्भ हुआ था उसी तरह इसका अन्त होगा । जन्म और मृत्यु हर चीज के साथ लगी हुई है । काल का प्रवाह नदी की धार के सदृश बहता चला जा रहा है । यह प्रवाह हर समय किसी-न-किसी नई वस्तु को सामने लाता रहता है।" सभी जीव-जतुप्रो यहा तक कि कीडे-मकोडो के प्रति भी वे अपरिसीम करुणामय थे। इस सम्बन्ध का उनका एक भजन है - "वृथा पशु-हिंसा मे क्यो जीवन कलकित करते हो ? वेचारे वनवासी पशुओ का क्यो निष्ठुर भाव से सहार करते हो? हिंसा सबसे बडा कुकर्म है । बलि के पशुओ को आहार न बनायो । अण्डे और मछलियां भी न खामो । इन सब कुकर्मों से मैने अपने अपने हाथ धो डाले है । वास्तव मे मागे जाकर न बधिक रहेगा और न बध्य । काश कि वाल पकने से पहले मैंने इन बातो को समझ लिया होता।" ४३६ 1

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