Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

View full book text
Previous | Next

Page 443
________________ आध्यात्मिक होलियाँ जैन साहित्यकार आध्यात्मिक होलियो की रचना करते रहे है। इनमे होली के अग उपागो का आत्मा से रूपक मिलाया गया है। उनमे आकर्षण तो होता ही है, पावनता भी ना जाती है । ऐसी रचनामो को 'फागु' कहते है । कवि बनारसीदास के 'फागु' मे आत्मा रूपी नायक ने शिवसुन्दरी से होली खेली है। कवि ने लिखा है, "सहज आनन्द रूपी वसन्त आ गया है और शुभ भाव रूपी पत्ते लहलहाने लगे है। सुमति रूपी कोकिला गलगही होकर गा उठी है, और मन रूपी भोरे मदोमत्त होकर गुजार कर रहे है । सुरति रूपी अग्नि-ज्वाला प्रकट हुई है, जिससे अष्टकर्म रूपी वन जल गया है। अगोचर प्रमूत्तिक प्रात्मा धर्म रूपी फाग खेल रहा है। इस भांति आत्म ध्यान के बल से परम ज्योति प्रकट हुई, जिससे अष्टकर्म रूपी होली जल गई और आत्मा शान्तरस मे मग्न होकर शिवसुन्दरी से फाग खेलने लगा।"१० कवि द्यानतराय ने दो जत्थो के महरा होली की रचना की है। एक भोर तो बुद्धि, क्ष्या, क्षमा रूपी नारिया है और दूसरी भोर प्रात्मा के गुण रूपी पुरुष है। ज्ञान और ध्यान रूपी डफ तथा ताल बज रहे है, उनसे अनहद रूपी घनघोर निकल रहा है। धर्म रूपी लाल रंग का गुलाल उड रहा है और समता रूपी रग दोनो ही पक्षो ने घोल रक्खा है। दोनो ही दल प्रश्न के उत्तर की भाति एक-दूसरे पर पिचकारी भर-भर कर छोडते हैं । इधर से पुरुष-वर्ग पूछता है कि तुम किसकी नारी हो, तो उधर से स्त्रिया पूछती है कि तुम किसके छोरा हो। पाठ कर्मरूपी काठ अनुभव रूपी अग्नि में जल बुझकर शान्त हो गये। फिर तो सज्जनो के नेत्र रूपी चकोर, १७. विषम विरष पूरो भयो हो, आयो सहज वसन्त । प्रगटी सुरचि सुगधिता हो, मन मधुकर मयमत ।। सुमति कोकिला गहगही हो, वही अपूरब वाउ । भरम कुहर बादर फटे हो, घट जाडो जडताउ ।। शुभ दल पल्लव लहलहे हो, होहि अशुभ पतझार । मलिन विषय रति मालती हो, विरति वेलि विस्तार ।। सुरति अग्नि ज्वाला जगी हो, समकित मानु अमद । हृदय कमल विकसित भयो हो, प्रगट सुजश मकरद ॥ परम ज्योति प्रगट भई हो, लागी होलिका प्राग । माठ काठ सब जरि वुझे हो, गई तताई भाग ॥ बनारसीदास, बनारसी विलास [४०७

Loading...

Page Navigation
1 ... 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489