Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 454
________________ राज्य पर ईशान्य दिशा से हमला करने वाला था । इस प्रकार त्रिपुरि में गये हुए राजकुमार कृष्ण एवं शंकरगण को अपनी कूटनीति से सफल होने ने बिलकुल सन्देह नहीं रहा। ___ इसलिए भविष्य मै चक्रवर्ती होने वाले कृष्ण को विशेष काबू में लाने के लक्ष्य से, गकरगण ने अपने पिता कक्कल को समझाकर, कृष्ण का विवाह, अपनी बहन के साथ किया और सेना के साथ किरणपुर पहुंचकर, हमला शुरू करने के लिए मगि के समाचार की प्रतीक्षा करने लगा। राजा रमडुबु में राष्ट्रकूट सेना की पराजय के समाचार को सुनते ही शंकरमण ने कृष्ण को ही राष्ट्रकूट-चक्रवर्ती घोषित कर चेदि राज्य की सीमा को लांघकर राष्ट्रकूट राज्य पर हमला किया। यह समाचार भयकर आंधी की तरह बहकर आया और उसने चक्रवर्ती को किंकर्तव्यविमूढ वना दिया। उस असीमित आधात से उनको बड़ा ही कप्ट पहुचा! भूकम्प के कारण हिन्डोले की तरह घूमने वाली धरती पर वे खड़े-बड़े ही डोलने लगे । चक्रवर्ती अपने ही नेत्र एवं कानो पर विश्वास नही करते हुए महल में इधर से उधर उवर से इवर पागल की तरह चक्कर काटने लगे। उस समय खाना, पीना आदि सभी चीजों को छोड़कर वै विद्रोह को निर्मूल करने के लिए सर्वथा कटिबद्ध हुए। पुत्र के विरुद्ध लड़ाई में जाने के लिए उन्होंने स्वयं सेनाधिपत्य को स्वीकार किया एवं विद्रोही राजकुमार को पकड़कर लानेवाले को एक लाख सिक्के वहुमान में देने की घोपणा की । इस भयंकर घोषणा को सुनकर सारा नगर बिजली के आघात की तरह एकाएक स्तव्य हुआ। __"इम अवसर पर गीघ्रातिशीघ्र आइए, चक्रवर्ती विद्रोही पुत्र को विना देखे अन्न-जल स्वीकार न करने की प्रतिमा कर चुके हैं। वे मेना को एकत्रित कर रहे हैं और उस सेना का नायक बनने के लिए स्वय कटिबद्ध हैं। राजवानी ने भी भेदनीति की आग सर्वत्र जोरो से सुलग रही है, इस समय चक्रवर्ती के पास आप जैसे प्राप्त और तपनिष्ठ व्यक्तियों का रहना परमावश्यक ही नही, अनिवार्य है । गीत्र चले आइए।" एक पत्रवाहक ने गुण भद्राचार्य के इस आशय वाने एक पत्र को बंकरस के हाथ में दिया। इस पत्र को पढकर थोड़ी देर बकरस किंकर्तव्यमूढ हो बैठ गये । पर उत्तर क्षण में ही गगवाडि के समर को आगे बढ़ाने का भार अपने एक विश्वस्त सेनानायक को सौंपकर भीत्रातिशीघ्र चलने वाले एक घोड़े पर सवार हो, अगरनको के साथ बिजली की तरह वकरस मान्यखेट की ओर चल पड़े । अकस्मात् आये हुए वकरन को देखकर अक्रवर्ती एकदम चकित हुए । सिर्फ चार दिन को दारण व्यथा से विलकुल सूबे हुए निस्तेज चक्रवर्ती को देखकर भयंकर रक्तवृष्टि से भी भय न खाने वाले वंकरस का वीर हृदय भी अग्निस्पषित नवनीत की तरह एकदम पिघल गया और आँखो मैं आँसू भर पाए । तब चक्रवर्ती ने कहा कि "कूटनीति की आधी से व्याप्त इस राजधानी को किसके हाथ में सौपकर जाएं। इस बात की बड़ी चिंता मे थे । आपके आने से हम निर्भय हो गये । अब निश्चित हो, समरागण की ओर जा सकते है।" ___ इसका जवाब बकरस ने यो दिया : "प्रनु के हृदय को मै पहचानता हूं। प्रभु ! राजकुमार के व्यवहार से आपके हृदय में जो चोट पहुंची है उसे में जान रहा हूँ। आप मेरी नम्र ४१८ ]

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