Book Title: Tansukhrai Jain Smruti Granth
Author(s): Jainendrakumar, Others
Publisher: Tansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi

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Page 459
________________ किया गया है। अत इस कथन को भी कचित सत्य की कोटि मे रखना ही श्रेष्ठ है। उपादान और निमित्त दोनो ही क्रमश कथचित भूतार्थ और कथचित अभूतार्थ है। उनके ऐकान्तिक स्वरूप को ग्रहण करना कुन्दकुन्द के दर्शन के साथ अन्याय करना है। प्राचार कुन्दकुन्द ने मानवीय आचार-दर्शन का आधार भी बडा व्यापक और सुस्पष्ट हूढा । व्यक्ति का जो धर्म है वही करणीय है । और जो वस्तु का स्वभाव है वही धर्म है (प्रव० सार-७) मत वस्तु के लिए करणीय वही है जो उसका स्वभाव हो । जैसे जल का स्वभाव शीतलता और आत्मा का स्वभाव चेतना है। उनका अपने स्वभाव मे दक्षित हो जाना ही धर्म है। ___स्वभाव किसी भी वस्तु के द्रव्यत्व की अभिव्यक्ति है। अभिव्यक्ति द्रव्य का गुण है और तत्वत द्रव्य और गुण एक ही इकाई के पहलू हे (प्रव० सार--११४)। मत अपने स्वभाव मे दीक्षित आत्मा स्वय धर्मरूप है (प्रव० सार-८)। धर्म कोई वाह्य वस्तु नहीं, जिसे ग्रहण किया जाए । निजत्व की धारणा ही धर्म है। प्राचार धर्म का वाहन है । आचार आत्मा का निजत्वमय अथवा स्वसमय होने का एक प्रयत्न है। इस स्वसमय होने के लिए परसमयत्व का त्याग अनिवार्य है। इसीलिए मन, वचन और काय तीनो ही स्तर पर अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय, शील, और ब्रह्मचर्य व्रतो के द्वारा आत्मा स्वसमय मे प्रवृत्त होती है। सम्पूर्ण विजातीय प्रभावो से मुक्ति आचार का लक्ष्य है । ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख की वृद्धि उपरोक्त मुक्ति की कसोटी है । इस गुण चतुष्टय की अनतरूपा अभिव्यक्ति शुद्ध चारित्र्य का घरमबिन्दु है । आचार इसी शुद्ध चारित्रिक प्रक्रिया की लक्षण सहिता है। प्राचार के मामले मे कुन्दकुन्द का वैशिष्ट्य इस बात मे अधिक है कि वह स्वसमय होने के लिए सत्ता के उपादान कारण पर अधिक वल देते है, क्योकि उपादान स्व की चीज़ है और स्व पर ही म्ब का अधिक काबू है। प्रत समताभाव धारण कर उपादान भूमि को उर्वरा बनाए रखना ही वह है जिसे हम कर सकते है । बीज उसमें पहले से ही पड़ा है । अब हमे धैर्य से निमित्त रूपी वाह्य जल-वायु की अपेक्षा करनी चाहिए और उत्तम फसल के लिए आशावान और विश्वासी भी रहना चाहिए । जो केवल निमित्त के पीछे दौडते है, उन्हे दोनो ही ओर से घाटा रहता है। उपादान की उपेक्षा तो उन्होने स्पष्ट ही की, और निमित्त परद्रव्यात्मक होने के कारण उनका निज हो न सका । प्रत ऐसे व्यक्ति अज्ञानी है और मूढ। आचार के दृष्टिकोण से उपादान ही श्रेष्ठ और भूतार्थ है और निमित्त हेय और अभूतार्थ । निश्चय नय की धारणा ही शुद्ध चरित्र की मोर ले जाती है और अतत मोक्ष-लाभ कराती है। कुन्दकुन्द अपनी इसी विलक्षण और मौलिक देशना से भारतीय वाङ्मय में अपनी अमिट छाप छोड गए । श्रद्धालुओं ने उनकी इतनी इज्जत की, कि उनका नाम भगवान वीर और गणधर गौतम के साथ स्मरण किया जाने लगा, जो कि निम्नलिखित मगल गाथा से स्पष्ट है - मगल भगवान वीरो मगल गौतमो गणी। मगल कुन्दकुन्दाद्यो जैन धर्मोस्तु मगल ॥ प्रस्तु, कुन्दकुन्द का शब्द प्रमाण हमारे लिए सदैव ज्ञानालोक विकीर्ण करता रहेगा। [ ४२३

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